Friday, July 6, 2007
कठपुतली या रबर् स्टाम्प ?
पूजना सब चाहते थे अपने अपने इष्ट को,
सबने आलों में सजाकर अपने ईश्वर रख लिये.
राष्ट्रपति के चुनाव में अब सभी ने अपने अपने पत्ते खोल दिये हैं और यू पी ए ,यु एन पी ए अथवा एन डी ए ,सभी का रुख सामने है.
यदि देश की राजनैतिक हवा में कोइ तूफान नही आया तो पहली बार एक महिला का राष्ट्रपति होना तय है.
आजकल टेलेविजन पर जब भी कान्ग्रेसी प्रत्याशी का जिक्र होता है, एक ही विजुअल दिखाया जाता है जिसमें प्रतिभा जी का हाथ पकड कर सोनिया जी अपने घर के अन्दर ले जा रही हैं.
कितना सिम्बोलिक है यह विजुअल?
कहने वाले कहते रहे कि पहले सात रेसकोर्स पर एक पुतला सरीखा ( हांलांकि बहुत काबिल भी !!!) व्यक्ति बिठाया और अब रैसीना पहाडी पर भी एक कठपुतली के माध्यम से कब्ज़ा कर लिया ,भले ही लोग उसे 'दागी' कहते रहें,की फर्क़ पैन्दा है ?
जहां तक कठपुतली या रबड स्टाम्प की बात है, तो मेरा स्पष्ट मानना है कि कोइ भी कितना भी योग्य, कितना भी स्वतंत्र या किसी भी अन्य योग्यता वाला व्यक्ति इस पद पर लाया जाता ( या पहले भी लया गया) ,काम तो उसने भी सम्विधान के दायरे में ही तो करना था. और सम्विधान हमारा ऐसा है कि राष्ट्रपति को 'मर्ज़ी ना मर्ज़ी बेगार करनी ही पडेगी'वाली बात है.
क्योंकि सम्विधान में जो राष्ट्रपति के अधिकार व कर्तव्य गिनाये गये है ,क्या आपने उन पर गौर फर्माया है ? यदि नही तो देखिये :
सबसे पहले धारा 74 को ही लीजिये. जब तक यह धारा सम्विधान में इसी रूप में रहेगी तब तक राष्ट्रपति एक कठपुतली मात्र ही बन कर रहेगा. उसके अपने अधिकार तो सारे इस धारा ने छीन रखे है.
धारा 72, 75,78,85,86,103,111,143 तथा 201 में राष्ट्रपति के पास जितने भी अधिकार है, सारे के सारे फैसले जो राष्ट्रपति ले सकता है, उनमें से एक भी राष्ट्रपति फैसला स्वयम का न होकर मंत्रिमंडल की "सलाह" पर ही हो सकता है.
पिछले अनेक वर्षों के उदाहरण हमारे सामने है, जहां यदि राष्ट्रपति ने मंत्रिमंडल का कोई फैसला वापस भी किया है, तो दुबारा सिफ्आरिश आने पर मज़्बूर होकर स्वीकार भी करना पडा है.
सम्विधान की इन धाराओं के चलते राष्ट्रपति तो एक प्रकार का बन्धुआ मज़्दूर जैसा ही दिखता है.
फिर क्या फर्क़ पडता है यदि प्रतिभा जीतें या भैरों सिंह जी. जो भी जीतेगा उसे सोने के पिंजरे में बन्द तोते की भूमिका ही निभानी है.
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2 comments:
सही कह रहे हैं आप!!
चतुर्वेदीजी, घर में अब मेरे पिताजी निर्णय नहीं लेते. मैं लेता हूं. पर आते-जाते उनका चरण स्पर्श कर गौरव महसूस करता हूं. वही हाल देश के स्तर पर है. रबर स्टैम्प के देश का आदमी कहलाना खराब लगेगा; वह भी तब जब पहले का राष्ट्रपति कद्दावर व्यक्तित्व का था.
खैर, न आप कुछ कर सकते हैं न मैं.
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