Sunday, June 10, 2007

मन्या की 'पागल औरत' का विस्तार ?

अभी अभी मन्या के चिट्ठे पर 'पागल औरत ' पढी. अच्छी लगी. साथ ही लगा कि इसके विस्तार के तौर पर अपनी एक पुरानी कविता जोड दूं तो ठीक रहेगा. मेरे प्रथम संग्रह 'नक़ाबों के शहर मेँ' से एक कविता 'संस्कार व सभ्यता' प्रस्तुत है.

सड़क के किनारे
सांसी -ठठेरों की एक बस्ती
बस्ती भी क्या
खानाबदोशों के आठ घर भर
बस.
गन्दे से पिल्लों के साथ कुश्ती करते बच्चे
कूड़े के ढ़ेर के पास दरी बिछाये मुखिया.
अध खुले स्तनों से चिपके हुए नवजात
और वहीं आस पास
चार बोतलें,कुछ गिलास लेकर बेठे
कमेरे
सांसी ठठेरे.

देखकर सांसी -ठठेरों की बस्ती
संस्कारवान मैं,
सभ्य, शिक्षित ,सुसंस्कृत समाज का हिस्सा मैं
बुद्धिजीवी मैं,
पचा नही पाया दृश्य को
जी मेँ कुछ उपजा
और थूक दिया मैने बड़ा सा
घृणा का एक हिस्सा
और बढ़ गया
नव-धनाड्यों की उस बस्ती की ओर
जहां लेब्राडोर,अल्शेसिअन ,पामनेरिअन नस्लों को
गोद मेँ उठाये ठीक ललनायें,नव्यौवनायें
गार्डेन चेयर पर
लौन मेँ पावं पसारे बैठे थे मुखिया
लिये मुहं मेँ सिगार
नव्जात को बौटल -फीड देती एक गवर्नेस,
और पास ही
कनोपी के नीचे
बार स्टेंड पर बीयर की चुस्कियां लेते
नव धनाड्य कमेरे.
संस्कारवान मैं,
सभ्य, शिक्षित ,सुसंस्कृत समाज का हिस्सा मैं
बुद्धिजीवी मैं,
पचाने की कोशिश करने लगा दृश्य को ,
जी मेँ उपजा नही कुछ भी
और थूक ही नही पाया
घृणा का कोई हिस्सा.

-अरविन्द चतुर्वेदी

अभिमन्यु की भटकन

कभी कभी बन्द् किवाडों को खोलकर्
जी चाहता है
बाहर् घूमूं
और् समय् की नब्झ् पर् हाथ् रखकर्
टटोलूं
और् देखूं
कैसे करता है मौसम्
समय् के बुखार् की तीमारदारी .

बस्ता उठाये ,बतियाते जाते
दो बच्चे
देखते ही
ओस बन जाने जैसा महसूस करता हूं,
जैसे गुजर् गया होऊं
किसी फूलों की क्यारी के बीच्.

सड़क पर आते ही घबरा सा जाता हूँ
वाहनोँ की चिल्ल पोँ
बेतहाशा रफ्तार से भागती दुनिया,
किसी तूफान की आशंका से भर जाती है मुझे
बस के अन्दर
किसी कन्या के गदराये उरोजोँ को छूने की
एक अधेड़ पुरुष की कोशिश
किसी कीचड़,किसी दलदल मेँ फेंक जाती है मुझे.
एक असफल अभिमन्यु बनकर
फंसा रहूँ दलदल मेँ
या
घर लौट कर कर लूँ फिर
बन्द
अपने किवाड़ोँ को?
- अरविन्द चतुर्वेदी

Thursday, June 7, 2007

अमूल मैचो अंडरवियर का विज्ञापन बनाम अश्लीलता की परिभाषा






विज्ञापनोँ मेँ नारी देह के शोषण की बात लगता है अब पुरानी हो गयी है. यौन सुख को फंतासी मेँ पिरोकर पाठकोँ /दर्शकोँ को परोसना विज्ञापन दाताओँ का नया शगल है. अपनी बात को स्पष्ट करने के लिये आपको 'अमूल- मैचो' अंडरवियर के उस विज्ञापन श्रंखला का जिक्र करना चाहूंगा, जिसे अश्लील मानकर ए एस सी आई ( एड्वरटाइजिंग स्टैंडर्ड्स काउंसिल औफ इंडिया- इसे आप भारत मेँ विज्ञापन-पुलिस या सेंसर भी मान सकते हैँ.)के पास शिकायत भेजी गयी थी. ठीक अभी दो दिन पूर्व ही ए एस सी आई ने उस शिकायत को अमान्य करते हुए इस विज्ञापन को 'श्लील' होने का प्रमाणपत्र दे दिया.

पहल्रे वह विज्ञापन: लगभग छह माह पूर्व अमूल अंडरवियर ब्रांड के निर्माताओँ ( इससे अमूल डेरी /दुग्ध उत्पादक का कोई दूर दूर का भी सम्बन्ध नही है) एक विज्ञापन एजेसी ( सैंट्स एंड वारियर्स- हिन्दी मेँ नाम हुआ-साधू एवम योद्धा) से टीवी विज्ञापन फिल्म बनाने हेतु करार किया.इस एजेंसी के पुष्पिन्दर् सिंह -पुष्पी( फोटॉ देखें) ने विज्ञापन बनाया .इस विज्ञापन फिल्म के निदेशक का नाम है बड्डी, और नायिका है साना खान .इसे ब्लेक मैजिक फिल्म्स ने बनाया है, जिसे अरविन्द नामक् कैमरामेन ने फिल्माया है. इस विज्ञापन मेँ एक नव विवाहित महिला कपड़े धोने तालाब पर जाती है.पुरुष (शायद अपने पति) का गन्दा अंडरवियर गठरी से निकाल कर धोती है. जिस हाव भाव को दर्शाया गया है,उससे लगता है वह कल्पना लोक मेँ खो गयी है तथा अंडरवियर धोने से उसे 'अज्ञात'सुख प्राप्त हो रहा है.तालाब किनारे खडी अन्य महिलायें भी 'बड़ी हसरत' से यह देखती हैं. फ़िर हमारे विज्ञापन की नायिका एक सोटी से अंडरवियर पीटने वाली होती है,तब अन्य महिलायें मुंह बिचकाती नजर आती हैँ कि हाय राम 'इसे' मत पीटो प्लीज़.आवाज़ आती है 'अमूल मैचो- क्रफ्टेड फार फेंटासीज'. विज्ञापन मेँ पृष्ठ भूमि मेँ आवाज़ आती है:' ये तो बड़ा टॉयिंग है,ये तो बड़ा टॉयिंग है,ये तो बड़ा टॉयिंग है.......'

विज्ञापन तमाम चैनलोँ पर प्राइम टाइम पर दिखाया जा रहा है. देखने वालोँ ने इसे पसन्द नही किया. आपात्तियां आने लगी कि यह घर मेँ बठकर सबके साथ नही देखा जा सकता .इसे अश्लील कहा गया. लोगोँ ने फूहड,गन्दा, विकृत आदि आदि कहा.

फिर मई माह मेँ ए एस सी आई को शिकायत की गई .ए एस सी आई द्वारा सम्बधित व्यक्तिओँ को नोटिस जारी हुए, सुनवाई हुई और अब फैसला आ गया कि विज्ञापन इतना खराब नही हैकि इस पर रोक लगाने जैसा कठोर /भयानक फैसला लिया जाये. यानि कि अब हरी झंडी मिल ही गयी.

इस बीच सी एन एन चैनल ने एक सर्वेक्षण किया जिसमेँ (कहते हैँ) 5000 लोगोँ ने भाग लिया. 49% ने इसे अश्लील नही माना जब कि 51% ने अश्लील माना.

विज्ञापन एजेंसी व अमूल अंडर्वीयर के निर्माता खुश है और कहते है कि इस विज्ञापन से हमारी बिक्री 35 % बढ़् गयी है.ए एस सी आई की हरी झंडी मिलने के बाद अब इसे सिनेमाघरोँ मेँ भी दिखाया जायेगा और इसके लिये इसे सेंसर बोर्ड का प्रमाणपत्र भी मिल गया है. मजे की बात है कि कोलकाता एड्वर्टाइजिंग क्लब ने इस विज्ञापन को एक पुरस्कार भी दिया है.

पश्न है कि क्या टीवी विज्ञापनोँ के लिये अलग से एक सेंसर बोर्ड होना चाहिये?क्या यही हल है?क्या ए एस सी आई जैसी एजेंसियों मे बैठे लोगोँ ने अपने घरोँ मेँ अपनी बहू-बेटियोँ के साथ यह विज्ञापन देखा है?

क्या विज्ञापनोँ के लिये कोई मानक / कोई आचार सन्हिता होनी चाहिये? इन प्रश्नोँ के साथ अन्य जुड़े हुए प्रश्नोँ
और विज्ञापनोँ पर् चर्चा फिर कभी.

वैसे मेँ मित्रों की जानकारी के लिये बता दूं कि अस्सी व नब्बे के दशक मेँ मैं स्वयम विज्ञापन जगत से अनेक वर्षोँ तक जुडा रहा था.

अरविन्द चतुर्वेदी

Sunday, June 3, 2007

सूरज सबको बांट्ता टुकड़ा टुकड़ा धूप्

बादल बून्दें बांटता ,चन्दा बांटै रूप
सूरज सबको बांट्ता टुकड़ा टुकड़ा धूप्

सूरज तो जासूस है, सबकी रखता खोज
हर खिड़की से झांक कर खबरें लाता रोज

ठंडी ठंडी चान्दनी ,चान्दी चान्दी रेत
लद गये दिन आसाढ़ के ,सावन के संकेत

नंगे से पर्वत दिखे, हरयाली ना दूब
लिपट लिपट कर पेड़ से रोया बादल खूब

चन्द्रग्रहण की सांझ को राहु-केतु स्वच्छन्द्
चन्दा को आने लगी राजनीति की गन्ध्

पूनम सी कविता दिखै, सभी करेँ सन्देह
बस हौले से छू गया ,चन्दा उसकी देह

आगे आगे चान्दनी, पीछे पीछे चान्द
सीधे आंगन तक घुसे सभी छतों को फान्द

हाथ उठाकर रेंग कर बच्चा करता मांग
फुदके फुदके चान्दनी, हाथ ना आवै चान्द

पन्द्रह दिन आज़ाद सौ, पन्द्रह दिन की जेल
चन्दा बादल से करै लुका छुपी कौ खेल

बदरी के पीछे दिखे, सूरज का परकाश
सात रंग र्की चादरें बिछी दिखें आकाश्

खड़ा बिजूका खेत मेँ,रहता सदा उदास
बाहें फैला कर खड़ा ,कोइ न आवे पास

पत्ता पत्ता जोड़् कै कुनबा लिया सजाय
जब पतझड़ आ जाय तो ठूंठ बचा रह्जाय्

रस्ता सबै बताय के ,पत्थर दर्द सुनाय
राही मंज़िल नापते, पत्थर हिल ना पाय


आशा है आपको ये दोहे पसन्द आयेंगे.
सादर,
-अरविन्द चतुर्वेदी