Saturday, March 22, 2008

यूं तो हम पंगे नहीं लेते, पर होली की बात ही कुछ और है - भडास,मोहल्ला, ग्रेग चैपल और देवेगौडा-सब एक साथ्

वैसे तो पंगे लेना अरुन अरोरा जी की ठेकेदारी में आता है. हमारा इस कला / क्रिया /कार्य कलाप से दूर दूर का वास्ता नहीं है ,पर यार होली कोई रोज़ रोज़ थोडी ही आती है.

तो हमने सोचा कि थोडी देर के लिये हो जाये कुछ नया और लेने लग गये ...पंगे.

होली के पंगे हों और चंडूखाने की बात न चले ,ये तो हो ही नहीं सकता.तो भैया जी मैने खोला अपना बस्ता और निकाली चंडूखाने की नयी नयी खबरें.

बमुश्किल तीन खबरें ही बन पायी थी कि पता चला ( पडोस का) मुर्गा भी ( भांग खाकर) बांग देने की सोच रहा है. घडी ( खराब) देखकर तीन पर ही तसली कर ली.


पहली खबर भडास का मोहल्ले से होली मिलन.


दूसरी खबर - ग्रेग चैपल बनेंगे हौकी टीम के कोच


और तीसरी खबर - देवेगौडा बनेंगे थर्ड अम्पायर्

पूरी तरह होलियाना चुहल यानी पंगा. ( मान कर चल रहा हूं कि इसे होली की तरंग में ही लिया जायेगा )


बुरा ना मानो होली है.

ऐश्वर्य जब तुम्हे पुकारे "अंकल जी" ..........

नाचो दे दे ताल ,मजे लो होली में,
गालों मलो गुलाल, मजे लो होली में.


रंग -बिरंगे चेहरों में ढूंढो धन्नो,
घर हो या ससुराल, मजे लो होली में.


हुस्न एक के चार नज़र आयें देखो,
ऐनक करें कमाल,मजे लो होली में.


ऐश्वर्य जब तुम्हे पुकारे "अंकल जी"
छू कर देखो गाल, मजे लो होली में.

लड्डू पेडे गूझे,गुझिया,माल पुआ,
खाओ सब तर -माल मजे लो होली में.

मिले रंग में भंग, मज़ा तब लो दूना,
बहकी बहकी चाल, मजे लो होली में.

बीबी बोले मेरे संग खेलो होली,
बैठो सड्डे नाल मजे लो होली में.



नाचो दे दे ताल ,मजे लो होली में,
गालों मलो गुलाल, मजे लो होली में.

Saturday, March 1, 2008

ज्ञानेन्द्रपति की कविता ----आप साहित्य प्रेमी हैं अथवा नहीं- इसे अवश्य पढें

अर्सा पहले एक मशहूर कवि की पुस्तक प्रकाशित हुई. जैसा कि अपेक्षित था-पुस्तक काफी चर्चित हुई. एक हिन्दी पत्रिका में पुस्तक की समीक्षा करते हुए आलोचक ने लिखा कि पुस्तक की अधिकांश रचनायें राजनैतिक टोन वाली हैं और तथा इन कविताओं का राजनैतिक तत्व उन पर हावी है,जो कविता को कमज़ोर करता है.

1999 में मेरा दूसरा संग्रह “चीखता है मन” प्रकाशित हुआ. ( भूमिका श्री कन्हैयालाल नन्दन ने लिखी थी). इसके परिचय में मैने लिखा कि यदि कवि की रचना पर उसका राजनैतिक सोच हावी होता है तो क्या हर्ज़ है? प्रश्न सिर्फ यह होना चाहिये कि कवि अपने सोच के प्रति ईमानदार है अथवा नहीं.
पिछले माह पुस्तक मेले में किताबघर द्वारा प्रकाशित ‘कवि ने कहा’ ( ज्ञानेन्द्रपति) के पन्ने पलट रहा था. पहली ही कविता दिल को छू गयी और पुस्तक खरीद ली. मेले से घर वापसी के लिये जैसे ही प्रगति मैदान स्टेशन से मेट्रो में बैठा ,अपना स्टेशन ( द्वारका ) आने तक अनेक कवितायें पढ़ गया. तब से कई कवितायें दो दो बार पढी हैं, घर पर बच्चों को भी सुनायी हैं . हांलाकि मैं रचनाकर की राजनैतिक सोच से सहमत नहीं हूं ,परंतु कविता से बुरी तरह प्रभावित हूं, या कहिये कि मुरीद हो गया हूं.
य़ह सब इसलिये कहना पडा कि मैं चाहता हूं कि आप इस कवि को पढें. उनकी कुछ कवितायें बहुत लम्बी है, तीन रचनायें ,जिनसे कवि का सोच उजागर होता है और तेवर झांकता है, यहां प्रस्तुत हैं.---)



कुछ कविताऎं और कुछ कविताऍं

कुछ कविताऍं
तो मैं खेतों से शकरकन्द की तरह खोदकर लाया
कुछ कविताऍं
तितलियों की तरह ,खुली खिडकियों से,
घुस आयीं मेरे घर
कि अपने घर .
कुछ कविताओं के लिये मैं कितना कितना घूमा
गो-यूथों के पीछे पीछे चरवाहे बालक सा ,
कि सांझ उन्हें दुह सकूं
धारोष्ण.
कुछ कविताऍं
कई कई बिट्वन की कुतिया माता सरीखी
दुधीले थन और गीली थूथन लिये ,
लगीं चलीं आयीं सडक से
पीछे पीछे मेरे दुआरे.,


एक गर्भवती औरत के प्रति

यह तुम्हारा उदर ब्रह्माण्ड हो गया है.
इसमें क्या है? एक बन रहा शिशु भर?
झिल्ली में लिपटी मांस पहनती चेतना. बस ?
कितनी फैलती जा रही है परिधि तुम्हारे उदर की
तुम क्या जानो कि अंतरिक्ष तक चली गयी है यह विरूप गोलाई और ये
पेड-पौधे,मकान,सडकें,मैं,यह पोल ,वह कुत्ता,उछलता वह मेढक,
रँभाती गाय,बाड़ कतरता माली, क्षितिज़ पर का सूरज
सब उसके अन्दर चले गये हैं और तुम भी.



नदी और नगर
नदी के किनारे
नगर बसते हैं
नगर के बसने के बाद
नगर के किनारे से नदी बहती है,