Wednesday, May 5, 2010

मेरी यूरोप यात्रा -1 : हवाई यात्रा- दिल्ली से इस्तानबुल

पन्द्रह दिन बिताने के बाद मैं स्वदेश लौट आया . जाने से पहले सोचा था कि रोज़ाना एक पोस्ट अपने ब्लोग पर करूंगा. इष्ट मित्रों को जानकारी मिलेगी तथा मैं अपने अनुभव भी साझा करता रहूंगा.

अति व्यस्तता के चलते यह सम्भव न हो सका. अत:भारत लौट कर अपने सारे अनुभव अब ब्लोग के माध्यम से मित्रों के सुपुर्द कर रहा हूं. आने वाले दिनों में कोशिश रहेगी कि प्रति दिन एक पोस्ट पूरी हो सके.


14 अप्रैल बुधवार .इन्दिरा गान्धी एयरपोर्ट पहुंच कर मात्र आधे घंटे मे चेकिंग –इन तथा माइग्रेशन की सारी औपचारिकतायें पूरी हो गयीं और समय को हलाल करना पडा. कभी इधर बैठा तो कभी उधर. हार कर कौफी पीने का मन बनाया तो बटुआ ,जिसमें कुछ फुट्कर भारतीय मुद्रा थी, न मिला तो वहीं 50 यूरो का नोट टूट गया . बोर्डिंग का समय भी आ गया परंतु एयरक्राफ्ट के भीतर जाकर फिर मन खिन्न सा हो गया क्योंकि टर्किश एयरलाइंस के इस विमान में वह सभी सुविधायें न थी, जिनकी मैं अपेक्षा कर रहा था मसलन निजी टीवी स्क्रीन वाली व अनेक संगीत चैनलों वाली सीट. पिछले वर्ष जब एमिरेट्स के विमान से अमरीका गया था, तब उसमें यह सभी सुविधायें थीं और आजकल तो अच्छी घरेलू विमान सेवायें भी यह सब सुविधा उपलब्ध कराती ही हैं.
सेवा के नाम पर भी कुछ प्रभावित नहीं हुआ. कम्बल मांगने पर कहा गया कि सीमित संख्या थी, अत: अब नहीं मिल सकता. नाश्ते ने भी कुछ खास लुत्फ नहीं दिया. आखिर कर मन लगाया फ्लाइट पत्रिका में दिये गये छह पेज़ के पहेली परिशिष्ट में. सुडोकू व अन्य पहेलियों में अच्छा वक़्त कट गया. बीच बीच में झपकी भी लेता रहा,अन्यथा दिल्ली से इस्तानबुल तक का सफर मुश्क़िल हो जाता.

इस्तानबुल पर फ्लाइट बदलनी थी.वहां से लियों (Lyon) की फ्लाइट पकड़ने के लिये लग्भग 55 मिनट थे.भागना सा ही पडा क्यों कि एक टर्मिनल से दूसरे तक काफी दूरी थी.हां, लम्बे चौडे इस्तानबुल एयर्पोर्ट की ,साफ सफाई, विशाल ड्यूटी-फ्री शोपिंग क्षेत्र ने अवश्य प्रभावित किया. इस्तानबुल पहुंचते पहुंचते तापमान में बदलाव आ गया था. अत: दिल्ली की गर्मी से निज़ात पाकर अच्छा लगा. चेकिंग-इन से पहले बेग में रखी जेकेट निकाल कर पहन ली. सामान की सुरक्षा जांच से एक बार फिर गुजरना पडा .( कम से कम जूते तो नहीं उतरवाये गये ).इस बार भी वही एयरलाइन तथा विमान भी कुछ छोटा था. किंतु इस बार मिले भोजन से कुछ तृप्ति सी हुई.
तुर्की व हिन्दुस्तानी भाषा में कुछ कुछ समानतायें सी दिखती हैं. हिन्दी में जो शब्द अरबी /उर्दू से आये हैं कुछ कुछ तुर्की में भी हैं . मसलन टर्किश एयरलाइंस को ही लें. अंग्रेज़ी के साथ साथ रोमन में लिखा था ‘ तुर्किस्तान हवा योल्लारी’ . तुर्की की हवा और हिन्दुस्तानी की हवा एक् ही हैं. चाय को तुर्की में चाये ( शाये) कहते हैं और कौफी को ‘कहवे’. यह कश्मीरी पेय ‘कहवा’ से ही मिलता जुलता है.
यात्रा में कहवे के साथ ‘हज़ल्नट’ खाने को दिये गये,जो मूंगफली के दानों जैसे हीस्वाद वाले किंतु आकार में बड़े चने जैसे थे. अच्छा लगा.

( आगे ज़ारी... फ्रांस की ज़मीन पर कदम ..)

7 comments:

निर्मला कपिला said...

बिलकुल यही अपने साथ हुया सोचा था रोजेक पोस्ट लिखूँगी मगर अभी तक 2--3 पोस्ट ही लिख पाई अभी 2006 के कैलिफोर्निया यात्रा संस्मरण आज तक पूरे अन्ही कर पाई। छलो जून मे भारत आ कर ही लिख पाऊँगी धन्यवाद और शुभकामनायें अगली कडी का इन्तजार रहेगा।

Udan Tashtari said...

रोचक वृतांत की शुरुवात हुई..इन्तजार था. हम तो आपका अमरीका आने का इन्तजार ही करते रह गये.

चलिये, अगली कड़ी की प्रतिक्षा है.

honesty project democracy said...

रोचक यात्रा वृतांत और व्यक्तिगत अनुभव पर आधारित इस रचना के लिए आपका धन्यवाद /

विवेक रस्तोगी said...

अब न रुकियेगा अब तो लिख ही डालियेगा। वृत्तांत में रोचकता बनी हुई है :)

डा.अरविन्द चतुर्वेदी Dr.Arvind Chaturvedi said...

@निर्मला जी
पिछले वर्ष अमरीका गया था ,तब तो 5 पोस्ट लिख ही डाली थीं. सोचा था लौट कर पूरा करेंगे,हां बाद में पूरा न कर सका.
जुन का इंतज़ार रहेगा.

डा.अरविन्द चतुर्वेदी Dr.Arvind Chaturvedi said...

@समीर जी,
क्या करें ,अमरीका हमें बुलाना ही नहीं चाह रहा था शायद. ( फिर कभी तो नम्बर आयेगा ही).
धन्यवाद.

डा.अरविन्द चतुर्वेदी Dr.Arvind Chaturvedi said...

@honesty project democracy
@विवेक जी
प्रतिक्रिया हेतु धन्यवाद. लीजिये आज ही हाज़िर है दूसरी किश्त .