Monday, September 10, 2007

कितनी सस्ती जान ?

अपने अपने मन में आस्था, श्रद्धा, विश्वास भरे हुए , उल्लसित व प्रफुल्लित होकर पारम्परिक धार्मिक मेलों में जाने वाले झुंडों को हम अक्सर देखते आये हैं. हम में से अनेकों ने इस प्रकार के मेलों मे स्वयम भी हिस्सा लिया होगा . ऐसे मेलों में परिजनों, नाते-रिश्ते दारों. मित्रों, पडोसियों आदि के साथ लुत्फ भी उठाया होगा . आनन्द के साथ साथ पुण्य भी अर्जित करके संतोष प्राप्त किया होगा.
राजस्थान के जैसलमेर जिले में प्रति वर्ष सूफी संत् रामदेवरा का मेला लगता है.इस मेले में हिन्दू –मुस्लिम सभी भाग लेते हैं. त्वचा की बीमारी आदि के इलाज़ के लिये दूर दूर से ग्रामीण पहुंचते हैं.. इसी मेले में जा रहे थे वो 200 लोग अपने परिजनों, नाते-रिश्ते दारों. मित्रों, पडोसियों आदि के साथ. मन में आस्था, श्रद्धा, व विश्वास भरे हुए उन लोगों ने सपनों में भी नहीं सोचा होगा कि उनके साथ कोई हादसा हो जायेगा क्योंकि आनन्द के साथ साथ पुण्य कमाना मेले में जाने का मुख्य उद्देश्य था. प्रकृति को शायद यह मंजूर नहीं था. राजसमन्द ज़िले में चारभुजा नामक स्थान पर एक बडी दुर्घटना में इस दल के लग्भग 90 श्रद्धालु काल-के गाल में समा गये.
प्रकृति का प्रकोप कहें या मानव की भूल ? क्या पाप था उनका ? क्या वे किसी गलत उद्देश्य पर जा रहे थे ?
इन प्रश्नों के उत्तर ढूंढने पर भी नहीं मिलते.
सडक हादसो में हमारे देश में सैकडो जानें रोज़ चली जाती हैं. अधिकांश्तया जो शिकार होते हैं वे निर्दोष होते हैं. जान से इस प्रकार हाथ धोने वालों में पैदल या साइकिल पर चलने वाले ज्यादा होते है. ग्रामीण ,अशिक्षित, गरीब, कुल मिलाकर वह वर्ग जिसे अंग्रेज़ी में have-nots कहा जाता है. इनके पीछे आंसू बहाने वाले तो बहुत होते है, हां, उनके आंसू पोंछने वाला कोई नहीं होता. सडक हादसों के साथ साथ इसमें आतंकवाद के शिकार भी जोड लें. राजनैतिक ,अराजकता ,दंगे-फसाद आदि में मरने वाले भी शामिल करें तो यह तादाद कई गुना बढ जाती है. चाहे बिहार, छतीसगढ आदि में नक्सल्वादी( अतिवादी) हमलों के शिकार हों, अलीगढ,भागलपुर , कोयम्बटूर या गोधरा में साम्प्रदायिक दंगों के शिकार . या फिर राजसमन्द जैसे सडक हादसे में मारे गये कतई निर्दोष व्यक्ति.प्राकृतिक आपदाओं मे गयी जानें तो जैसे ‘ऊपर’ से लिखा कर ही लाते हैं ये नादान लोग. ये बेकसूर लोग अपनी जान की कुर्बानी व्यर्थ में ही दे रहे है. किसी को कोई फर्क़ नही पडता सिवाय उनके ,जो इन पर आर्थिक रूप से निर्भर रहे हों या उनको, जिनका मृत जनों के साथ पारिवारिक व आत्मीय रिश्ता रहा हो.

प्रशासन ऐसी घट्नाओं पर ‘चिंत्ता व दुख प्रकट’ करता है. यदि वे कोई वोट बेंक रहे हों ( सामूहिक रूप से) तो कोई स्थानीय नेता (या नेता के विशेष निर्देश पर् कोई अधिकारी) ऐसे स्थान पर जा कर ‘कुछ” आर्थिक मदद की घोषणा करता है.मीडिया के लिये “एक और खबर” भर होतें हैं ये लोग. य़ा फिर एक दिन की सुर्खिया बनने का सस्ता सामान भर.
मरना इनकी नियति है. बेखटके मस्त जिन्दगी जीते जीते अचानक खत्म हो जाना, कभी किसी के लिये राजनैतिक रोटियां सेकने का कच्चा माल बन जाना. तो कभी किसी और बेकसूर (?) को सजा दिला जाना. ( जैसा कि राज्समन्द वाले हादसे मे हुआ है-या होने जा रहा है,: एक लघु स्तर के कर्मचारी को इस आरोप में निलमबित किया गया है कि उसने ट्रक में बैठे 200 लोग देखकर चालान क्यों नहीं किया))

वाकई जान सस्ती है.खास कर ऐसे लोगों की जान- जो किसी से शिकायत नही कर सकते. जो आम बोल चाल की भाषा में ‘महत्वहीन’ हैं. जिन्हे मात्र कुछ हज़ार रुपयों का मुआबजा देकर सीन से गायब कर दिया जा सकता है.
राजसमन्द मे मारे गये लोगों को मेरी श्रद्धांजलि.

2 comments:

Shastri JC Philip said...

"राजसमन्द ज़िले में चारभुजा नामक स्थान पर एक बडी दुर्घटना में इस दल के लग्भग 90 श्रद्धालु काल-के गाल में समा गये.
प्रकृति का प्रकोप कहें या मानव की भूल ? क्या पाप था उनका ? क्या वे किसी गलत उद्देश्य पर जा रहे थे ? "

एक ऐसा प्रश्न जिसका जवाब शायद आज तक कोई नहीं दे पाया है -- शास्त्री जे सी फिलिप

मेरा स्वप्न: सन 2010 तक 50,000 हिन्दी चिट्ठाकार एवं,
2020 में 50 लाख, एवं 2025 मे एक करोड हिन्दी चिट्ठाकार!!

Shastri JC Philip said...

आपसे संपर्क के लिये आपके चिट्ठे पर कोई ईपता नहीं दिखा ! मैं आपको एक सूचना भेजना चाहता था. webmaster@sarathi.inf