Saturday, March 27, 2010

निश्चित ही चयनकर्ता मुझसे अधिक जानकार हैं किंतु मेरी भी एक राय है !!

वही हुआ जिसका डर था.वेस्ट इण्डीज़ में अप्रैल में होने वाले टी-20 विश्वकप के लिये भारतीय टीम की घोषणा तो कर दी किंतु चूक फिर हो गयी.
भारत एक बार इस टूर्नामेंट का चेम्पियन रह चुका है अत: हर भारतीय क्रिकेट प्रेमी उम्मीद कर रहा था कि चयनकर्ता ऐसी टीम का चयन करेंगे जो इस बार फिर विश्व विजेता बनने की सम्भावना रखती हो.

शाम तक आते आते जब टीम की घोषणा हुई तो एक बार फिर चोंकना पड़ा. टीम के 15 खिलाडियों में चार ऐसे नाम हैं जो इस टीम को कमज़ोर बनाते हैं. जब मुझ जैसा ( क्रिकेट प्रेमी एवं )मामूली जानकार इस कमज़ोरी को देख सकता है तो फिर विशेषज्ञ चयन कर्ता क्यों नहीं?
क्या वे किसी दबाब में कार्य कर रहे हैं? या कमज़ोर खिलाडी को शामिल करने में भी कोई रणनीति है?

इस टीम में जिन खिलाडियों के नाम पर कोई दूसरी राय हो ही नहीं सकती वे हैं: धोनी, सहवाग, गम्भीर ,सुरेश
रैना, युवराज, युसुफ पठान, रविन्द्र जदेजा, हरभजन ,ज़हीर खान, प्रवीण कुमार, दिनेश कार्तिक. यहां विनय कुमार का नाम भी जोड़ा जा सकता है.

किंतु जिन नामों को मैं कमज़ोर मानता हूं और जिनकी ज़गह पर दूसरा खिलाड़ी चुन जाना चाहिये था ,वह निम्न है:--
अशिष नेहरा ( इर्फान पठान ), पीयुष चावला ( पी. ओझा या अशीष मिश्र ), रोहित शर्मा ( मनीष पांडे या शिखर धवन).

मेरी राय में इन तीनों ने हाल फिलहाल कोई बहुत अच्छा परफोर्मेंस तो नहीं ही दिया है. साथ ही उनके स्थान को भरने के लिये कई और नाम हैं किंतु आई पी एल -3 के शोरशराबों में किसी का ध्यान उधर भले ही ना गया हो.
वर्तमान परिस्थियों में सब कुछ देखते हुए उक्त तीन स्थानों पर इरफान पठान, अशीष मिश्र,और मनीष पांडे के नाम जुडना चागिये था.

बाकी.. सब ऊपर वाले की मर्ज़ी पर चलता है ...

Monday, March 8, 2010

मैं हर तरह के आरक्षण के खिलाफ हूं. महिला आरक्षण विधेयक से महिलाओं का भला नहीं होगा. बुरा लगे तो दो रोटी ज्यादा खा लेना....

जो महिला विधेयक को एक क्रांतिकारी कदम बता रहे हैं मैं उनसे पूछना चाहता हूं कौन सी क्रांति की आशा है उन्हे इस प्रतिगामी विधेयक से?

संसद में या विधानसभाओं में चन्द महिलायें ज्यादा हो जायेंगी तो कौन सा फर्क़ पडने वाला है. पंचायत, नगर निगम व नगर पालिकाओं में महिला आरक्षण के नतीजे यही बताते हैं कि राजनीतिक परिवारों के पुरुष उनकी कन्धे पर बन्दूक रख कर राजनीति करते हैं .

मैं स्पष्ट कर दूं कि मैं महिलाओं को अधिक अवसर दिये जाने का पक्षधर ज़रूर हूं परंतु किसी भी तरह के आरक्षण के खिलाफ हूं.आरक्षण कोई रामबाण नहीं है.

अनुसूचित जाति, जनजाति ,अन्य पिछडे वर्गों को आगे लाने के लिये बहुत कुछ किया जा सकता है सिर्फ आरक्षण की वैसाखी देकर उन्हें विकलांग बना दिया गया है और यही गति देश की महिलाओं की करने की साजिश है.

यदि आज के राजनैतिक दल सही मायनों में अनुसूचित जाति, जनजाति ,अन्य पिछडे वर्गों व महिलाओं का भला चाहते हैं उन्हे प्रगति के शिखर पर ले जाना चाहते हैं तो शिक्षा ही एकमात्र उपाय है.

मुफ्त शिक्षा, समान शिक्षा व अनिवार्य शिक्षा यही हमारा मंत्र होना चाहिये.

आरक्षण रूपी झुनझुने थमाने से न किसी का भला हुआ है और न ही होगा. पाखंड और ढकोसले की राजनीति वोट भले ही दिला दे, देश को पीछे ही धकेलेगी.

10 वर्षों के लिये दिया गया अनुसूचित जाति व जनजाति हेतु आरक्षण अभी तक लागू है. आज तक यह अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो पाया. इससे सिर्फ समाज में वैमनस्य व कटुता ही बढी है. यही हाल मण्डल आयोग के चलते हुआ. अन्य पिछडे वर्गों को भी बस सुनहरे ख्वाब दिखाये गये. कहीं कुछ नहीं बदला. क्रीमी लेयर ही सब फसल चर् गयी.

महिला आरक्षण को लेकर जश्न मनाने वालों को भी मैं यही कहना चाहता हूं. जिस महिला के उत्थान की आप बात करते हो, उसे तो यही नहीं पता कि संसद है क्या?

50 वर्ष हो गये ,हम दो पीढियों को साक्षर नहीं कर पाये.

आरक्षण हर मर्ज़ की दवा नहीं है.

हमें सोच बदलनी होगी.
हो सकता है कि कल आरक्षण समर्थक सफल भी हो जायें और मेरा मज़ाक उडायें.

कडवी ज़रूर लगेगी मेरी बात.पर सच हमेशा कडवा ही होता है.
बुरा लगे तो ... दो रोटी ज्यादा खा लेना .. ( और मुझसे पर गरिया लेना.)

संसद में राजनैतिक पाखंड की ऐतिहासिक मिसाल है महिला आरक्षण विधेयक

आज राज्य सभा में में संसद की गरिमा अक्षुण्ण रह गयी. हालांकि आने वाले दिनों में यह गरिमा तार तार होगी, यह तय है. महिला आरक्षण विधेयक भारतीय राजनीति में राजनैतिक तंत्र द्वारा देश पर थोपा जाने वाला सबसे बडा पाखंड है . इस पाखंड का भंडाफोड- संसद में होने से संसद की गरिमा नहीं बची रह सकती.

देश के अधिकांश राजनैतिक दल ,जो इस विधेयक का समर्थन कर रहे हैं, पहले दर्जे के पाखंडी और फरेबी सिद्ध हुए हैं.14 वर्षों से ढिंढोरा पीट पीट कर विधेयक पास न होने पर पूरे तंत्र को दोषी बताते आये हैं. क़िंतु महिला आरक्षण के मुद्दे पर एक भी दल ऐसा न निकला जो अपनी कथनी और करनी को एक रूप दिखा पाता.

कितने चुनाव आये और गये. लोक सभा के चुनाव भी हुए और विधान सभाओं के भी. आज महिला आरक्षण के नाम का नारा लगाने वाले एक भी दल ने 10 प्रतिशत से ज्यादा महिला प्रत्याशी नहीं उतारे. यह तथ्य इन सारे दलों के पाखंड को बेनक़ाब करता है.

यदि ये दल वास्तव में महिला वर्ग के हितैषी होते तो इन्हे किसी विधेयक अथवा कानून की आवश्यकता नहीं थी. 33 प्रतिशत ही क्यों 50 या इससे भी ज्यादा चुनाव क्षेत्रों में यह दल महिला प्रत्याशी को उतार सकते थे. इन्हे कौन रोकने वाला था?

अब यह फिर देश के समक्ष रोना रोयेंगे. सियापा करेंगे. दोषारोपण करेंगे.

इनकी नीयत साफ नहीं है.

दोगले हैं ये .

पाखंडी .

Monday, March 1, 2010

होली है भई होली है. खेलने वाली नहीं , गाने वाली

शाम हुई और मन हुरियारा हो गया.
फागुन की हवा में ही कुछ ऐसी मस्ती होती है
कि मन करता है कुछ रंगीन्,
कुछ चुलबुली शरारत ,
कुछ छेडछाड़ की जाये

किसी की चुनरी भिगोई जाये
किसी को चिकोटी काटी जाये.
किसी से चुहल की जाये.
और कुछ नहीं
तो बस मस्ती में अकेले ही झूम लिया जाये
.......
.....

और बस यूं ही कुछ पुरानी होली याद आयी ....ऐसे ...


कमल फूल जल में बाढे, और चन्दाआआआ हो उगे आकाश,
मेरो मना पिउ में लागो
और पिउ को हहो मोमें हतु नांय
पिउ बिन होरी को खेलै ?
हो पिउ बिन होरी को खेलै ?

कोजा बसे गढ आगरें, और कोजा औरंगाबाद
कोजा बसे गढ सांकरे और कोजा चन्दन चौपार
मेरो मना पिउ में लागो
और पिउ को हो मोमें हतु नांय
पिउ बिन होरी को खेलै ?
हो पिउ बिन होरी को खेलै ?


देवरा बसे गढ आगरें, और जेठा औरंगाबाद
ससुर बसे गढ सांकरे और बलमा चन्दन चौपार
मेरो मना पिउ में लागो
और पिउ को हो मोमें हतु नांय
पिउ बिन होरी को खेलै ?
हो पिउ बिन होरी को खेलै ?



साभार : ब्रज गोकुलम्