दीवारों से टकराने का अभ्यास ज़रूरी है
पत्थर को पिघलाने का प्रयास ज़रूरी है.
धार नदी की मुड़ सकती है, बस दो हाथों से
अपने हाथों पर ऐसा विश्वास ज़रूरी है.
तृप्त नहीं होती जो मंज़िल को पा जाने तक़
मंज़िल के हर राही को वह प्यास ज़रूरी है.
बीच सफर से जो मुड़ जाये वापस जाने को
ऐसे सारे लोगों का उपहास ज़रूरी है.
मार कुंडली जो बैठे सम्पूर्ण व्यवस्था पर
ऐसे काले सर्पों का सन्यास ज़रूरी है.
हारे थके बदन में फिर से जोश जगाने को,
थोड़े आंसू, कुछ कुंठा ,संत्रास ज़रूरी है.
बहुत अकेले से लगते हैं ये टेढ़े रस्ते ,
एक जीवन साथी का होना पास ज़रूरी है.
सभी गलों से इसके ही स्वर गूंजेंगे कल से
गज़ल लिखे जाने तक़ ये अहसास ज़रूरी है.
5 comments:
बढ़िया रचना।
मेरी समझ में तो सन्यास की जगह विनाश जरूरी है।
खूबसूरत रचना
साधुवाद
@गिरिजेश राव जी
@अरुन प्रकाश जी
आपने गज़ल पसन्द की,धन्यवाद्
@गिरिजेश राव जी
@अरुन प्रकाश जी
आपने गज़ल पसन्द की,धन्यवाद्
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अति सुन्दर,
"सभी गलों से इसके ही स्वर गूंजेंगे कल से
गज़ल लिखे जाने तक़ ये अहसास ज़रूरी है."
वाकई यह अहसास न रहे तो गजल क्या कोई भी रचना न हो पाये...
आओ अंगीकार करें 'शाश्वत सत्य' को.......प्रवीण शाह
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