
कम ही होता है ऐसा कि जब मंच पर गोपाल दास नीरज अकेले कवि के रूप में बैठे हों, माइक हाथ में हो, और सामने बैठे श्रोता पूरे मनोयोग से नीरज की रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हों. बिल्कुल बिना किसी रोक टोक के. नीरज दिल से रचना पढ रहे हों,और श्रोता भी दिल से ही सुन रहे हों.
ज़ी हां ऐसा ही हुआ, 30 जनवरी को ,पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बडौत नामक स्थान पर.. बडौत के ‘शहजाद राय केलादेवी जैन स्मृति न्यास’ की ओर से नीरज जी को “संस्कृति गौरव सम्मन “ से नवाज़ा गया.. नीरज को शाल, प्रशश्ति- पत्र भेंट करके सम्मानित किया गया डा. सुब्रामंण्यम स्वामी द्वारा ,जो कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे. ( अध्यक्षता कर रहे गोविन्दाचार्य ,आये और बिना अध्यक्षीय भाषण दिये चले भी गये). मंच पर मेरठ क्षेत्र के डी आई जी विजय कुमार भी मौजूद रहे और कविता पाठ का भरपूर रस लेते रहे.. मुझे भी यह आनन्द प्राप्त हुआ..
जब कार्यक्रम की अन्य औपचारिकतायें पूरी होने के बाद नीरज की बारी आई तो उन्होने प्रारम्भ किया;
तन से भारी सांस है ,भेद समझ ले खूब
मुर्दा जल में तैरता ,जिन्दा जाता डूब
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फिर इसके बाद नीरज जी अपनी रौ में आ गये और फिर उन्होने झूमकर सुनाया-
अब के सावन में शरारत ये मेरे साथ हुई
मेरा घर छोड के कुल शहर में बरसात हुई
ज़िन्दगी भर तो हुई गुफ्तगू गैरों से मगर्
हम से अब तक न हमारी मुलाक़ात हुई.
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सिलसिला तो शुरू हो ही चुका था-नीरज जारी रहे -
आदमी को आदमी बनाने के लिये,
ज़िन्दगी में प्यार की कहानी चाहिये ,
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अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाये
जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाये
आग बहती है है यहां गंगा में,झेलम में भी
कोई बतलाये कहां जा के नहाया जाये
मेरे दुख दर्द का तुझ पर हो असर कुछ ऐसा
मैं रहूं भूखा तो तुझसे भी ना खाया जाये
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किसी की आंख लग गयी ,किसी को नीन्द आ गयी
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खुशी जिसने खोजी वो धन लेके लौटा...
.....चला जो मोहब्बत को लेने
वो तन लेके लौटा ना मन लेके लौटा
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कहानी बन के जिये हम तो इस ज़माने में
तुम को लग जायेंगी सदियां हमें भुलाने में
जिनको पीने का सलीका न पिलाने का शऊर
शरीफ ऐसे भी आ बैठे हैं मैखाने में
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इसके बाद सम्मान का कर्यक्रम सम्पन्न हुआ. मगर ना सुनने वाले सिलसिला खत्म करना चाहते थे ना नीरज जी, अब फर्माइश हुई ...कारवां गुज़र गया.... फ़िर पूरे जोश मे ( 86 साल की उम्र है,मगर सुनाने का अन्दाज़ वही चिरपरिचित) गाया.
इस बार नीरज ने खुद ही कहा, अब मेरे मन का भी सुनो. अब उन्होने सुनाया –
ए भाई ज़रा देख के चलो,आगे ही नहीं पीछे भी,......
उन्होने वह पद भी सुनाया जो फिल्म में नहीं था. . रात के साढे दस बज चुके थे. हमें (मुझे व डा.स्वामी को) दिल्ली वापस भी आना था .
इस तरह समाप्त हुई वह नीरज की काव्य-सन्ध्या . मैं तो धन्य हो गया.
( नोट ; ऊपर लगा फोटो इस कार्यक्रम का नहीं है )
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