Monday, January 19, 2009

अपने देश में ही क्यों पराये हैं हिन्दीभाषी ?

नहीं ,मैं बम्बई की बात नहीं कर रहा हूं. वहां तो फिलहाल राज ठाकरे के गुंडो की कार्य वाही पर अंकुश लगा हुआ है.हिन्दी भाषियों के प्रति घृणा फैलाने का जो पुनीत कार्य राज ठाकरे ने बम्बई में कर रखा है,कमोबेश वैसी ही हालत उत्तर-पूर्व में भी है. आज नहीं ,बल्कि अनेक वर्षों से यहां हिन्दीभाषी लगातार घृणा का शिकार होते आ रहे है. सबसे ताज़ा-तरीन घटना है आसाम में बदरपुर् व हरंगाजाओ नामक स्टेशनों की तथा त्रिपुरा के धर्मनगर की, जहां भारतीय रेलवे द्वारा नियुक्त तीन दर्जन हिन्दीभाषी युवकों को नौकरी पर हाज़िर होने से रोक लिया गया. जब ये लोग अपनी ड्यूटी पर पहुंचे तो वरिष्ठ अधिकारियों ने स्थानीय लोगों के दबाब में आकर नौकरी से वंचित रखा.
स्थानीय लोग इन हिन्दीभाषियों का विरोध काफी समय से करते आ रहे हैं और अनेक स्थानों पर हिन्दीभाषी हिंसा का शिकार भी हुए हैं. क्या कसूर है इनका ? कहां हैं मानवाधिकार समर्थक और कहां है हमारा कानून? कोई तो बताये कि आखिर अपने देश में ही क्यों पराये हैं हिन्दीभाषी ?

2 comments:

संगीता पुरी said...

बहुत सही प्रश्‍न है।

डा.अरविन्द चतुर्वेदी Dr.Arvind Chaturvedi said...

धन्यवाद संगीता जी,
प्रश्न का उत्तर ढूंढना चाहिये .
( नहीं तो सरकारों से पूछा जाना चाहिये)