

बडे फक़्र के साथ आज़ादी की साठवीं वर्षगांठ हम मना रहे हैं. एक उन्नत ,विकसित राष्ट्र के जो सपने आज़ादी के लिये संघर्ष करने वाली हमारी पिछली पीढी ने देखे थे, उनमे से अनेक पूरे हुये हैं और हम पूरे गर्व के साथ इन उपलब्धियों का उल्लेख करते है. अर्थ, विज्ञान ,स्वास्थ्य ,शिक्षा जैसे अनेक क्षेत्रों में महत्वपूर्ण - विश्व स्तर की उपलब्धियों के बावज़ूद हम सुरक्षा के मुद्दे पर इतने कमज़ोर ,शक्तिहीन व प्रभावहीन क्यों हैं?
आज अंग्रेज़ी दैनिक Times of India की lead story पढकर भौंचक रह गया. मात्र पिछले तीन वर्षों मे भारत में आतंकवाद की भेंट चढने वालों मे भारत का विश्व में दूसरा स्थान है. इस अवधि में भारत के 3600 से अधिक लोगों की जानें गयी हैं .( हमसे अधिक जन-हानि उथाने वाले दिशों में सिर्फ ईराक़ हमसे आगे है). यानि प्रतिदिन के औसत पर ह्म लगभग तीन कुर्बानियां देते आ रहे है. यहां तक कि अफगानिस्तान, कोलम्बिया,रूस,सूडान जैसे देश भी हमसे कहीं पीछे हैं.
पिछले लग्भग 25 वर्षों से किसी न किसी रूप में हम आतंकवाद से जूझ रहे हैं . पहले पंजाब जलता रहा जिसे हमारे पडोसी देश की भरपूर शह मिलती रही. देश की जनता ने अत्यंत संयम से काम लिया. जम्मू व काश्मिर में तो आग अभी तक सुलगती आ रही है. शायद ही कोई दिन पूरी तरह शांति से गुजरता हो. उत्तर-पूर्व के अनेक राज्य आतंकवाद से जूझते आ रहे है तथा वहां की शांतिप्रिय जनता अब तो प्राय: इसकी अभ्यस्त सी हो गयी है. इन प्रभावित राज्यों के अतिरिक्त देश के अनेक प्रमुख नगरों की भोली भाली निरीह जनता ,जिसे soft target कहा जाता है ऐसी घटनाओं का दर्द झेलती आ रही है. दिल्ली, बंगलौर, हैदराबाद, मुम्बई आदि नगरों में अनेक मासूम अपनी जान की कुर्बानी दे चुके हैं.
क्या कारण है कि भारत यह सब सहता आ रहा है?
हमारी व्यवस्था इतनी कमज़ोर क्यों है?
हमारा खुफिया तंत्र सालों से सो क्यों रहा है. भारत क्यों नहीं इजराइल जैसे देशों के साथ ऐसे समझौते करके विशेष प्रशिक्षण की व्यवस्था करता ताकि हम आतंकवादियों का खुला मुक़ाबला कर सकें?
सरकारें आती हैं, चली जाती हैं. स्वरक्षा, सुरक्षा पर लगातार बढते बजट के बावजूद भारत का पूरा तंत्र इतना कमज़ोर क्यों है?
आतंक्वादियों के मंसूबे पूरे होते जाते हैं परंतु हमारा तंत्र क्यों सदैव नपुंसक ही बना हुआ है?
कब तक आखिर , आखिर कब तक ?
समय आ गया है कि हम जागें और् उठ खडे हों इस दानव के खिलाफ.कोई भी कुर्बानी छोटी है हमारी सुरक्ष के सामने.
भाई संजय बेंगाणी की टिप्पणी बडी माक़ूल है, उसका वहा तो जवाब तो मैने लिख दिया, परंतु सोचा कि पूरे लेख का लब्बो-लुबाब तो यही होना चाहिये था. वह यों है:
रास्ता कठिन या दुष्कर नहीं होता, विशेष कर तब जब हम अपने अस्तित्व के लिये लड रहे हों .
हमारे अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध किस काम के यदि हम अपने लिये सुरक्षा के लिये आवश्यक technology जुटा ना सकें.
तय करना होगा कि भारत ऐसे समझोते करे जहां हमारी अपनी सुरक्षा खतरे में पडे तो दस बीस देश हमारे साथ खडे हों.
.....और सौ की सीधी एक बात . खत्म कर दो ना नासूर को जो हमारे देश पर पडोस से नज़रें गडाये खडा है. ..और अपनी ताक़त के दम पर , झुकाओ ना उन दूसरी ताक़तों को जिनका डर है हमॆं.
...दुनिया झुकती है. झुकाने वाला चाहिये ...