Thursday, February 21, 2008

पडोस में लोकतंत्र -कब तक़ आखिर, आखिर क़ब तक़्

मुशर्रफ तो मुशर्रफ, अमरीका तक को ये गुमान नहीं होगा कि पाकिस्तान में खिचडी पकने जा रही है. बेनज़ीर की शहादत आखिर रेंज लायी और पाकिस्तान की जनता ने आधे मन से ही सही, पर
अंतत: मुशर्रफ गलती कर ही बैठे. मजे से पूरे देश पर सेना के जनरल की तरह शासन चल रहा था.जनता यहां वहां थोडी बहुत ना-नुकुर कर तो रही ठीक परंतु हालात इतने खराब नहीं थे, क्यों कि पीछे से अमरीका का पूरा साथ था.
लेकिन जैसे हर जनरल का कभी न कभी अंत आता ही है, मियां मुशर्रफ भी लालच में आ ही गये. सोचा होगा कि किसी तरह एक बार जम्हूरियत (Democracy) का झुनझुना दिखाकर सत्ता हथिया ली तो फिर कोई चुनौती देने वाला भी नहीं बचेगा, आका ( अमरीका ) खुश होगा ,सो अलग. यानी दोनो हाथॉं में लड्डू. पर पांसा उल्टा पड गया.
1975 में जब श्रीमती इन्दिरा गान्धी ने भारत में आपात काल घोषित किया था, तब उन्हें भी भान नहीं था कि कहीं न कहीं जनता विरोध भी कर सकती है. जब विरोध की सुगबुगाहट बढने लगी, तो इन्दिराजी ने भी वैसा ही सोचा था,जो मुशर्रफ ने अब सोचा था. जैसा इन्दिरा जी को झेलना पडा ( शाह कमीशन की जांच, फिर गिरफ्तारी आदि..), अब मुशर्रफ की बारी है.

भारत में तो लोक्तंत्र की जडें मज़बूत थीं और कानून-judiciary भी काफी हद तक़ स्वतंत्र ठीक सो वह बच भी गयीं और फिर शानदार वापसी भी की, परंतु पाकिस्तान और भारत की तुलना सम्भव नहीं है. जिस तरह मुशर्रफ ने वहां अदालत judiciary को तिगनी का नाच नचाया था, अब वही judiciary उनके पीछे पड जाये तो आश्चर्य नहीं होना चाहिये.

और फिर पाकिस्तान में तो यह खेल बहुत पुराना है. हर तानाशाह इस परिस्थिति से गुजरा है. बचा भी कोई नहीं, अयूब खां हों या जनरल टिक्का खां,और या जिया उल हक़, सबके सब उसी गति को प्राप्त हुए. अत: माना जाना चाहिये कि अब मुशर्रफ भी क़तार में है.

सरकार कौन बनाता है और कितने दिन चला पाता है, यह कहना पाकिस्तान जैसे मुल्क के लिये कुछ ज्यादा ही मुश्किल है.
हां एक बात ज़रूर ,कि भारत के सम्बन्ध कोई सुधरने वाले नहीं हैं. जब भी पाकिस्तान में सत्ता परिवर्तन हुआ है, भारत के सम्बन्ध बिगडे ही हैं.

1 comment:

रामेन्द्र सिंह भदौरिया said...

जिन नामो या शब्दों के अन्त में "आन" लग जाता है,वे किसी विशेष उद्देश्य के लिये अपना कार्य अन्दरूनी तरीके से किया करते है,महान शब्द को ही देख लो,मह तो ठीक है,दूध को जमाकर दही बनाकर फ़िर मथनियां में बिलोकर मक्खन निकाल कर छाछ बना ली जाती है,वही छाछ मह कहलाती है,लेकिन छाछ भी आन लगने के बाद कितनी खूबशूरत लगने लगती है,उसी तरीके से कल्यान शब्द को देख लीजिये कलयुग को कलि कहते है,और आन लगते ही किसी न किसी का तो हो ही जाता है,कल्यान,बडी मुश्किल से किसी त्यौहार के विशेष समय में परव मनाया जाता है,संक्रान्ति के दिन सभी भोर के चार बजे परव का आनन्द लेलेते है,लेकिन इसमे भी आन लगने के बाद कोई भी परवान चढ ही जाता है,कितनी तपस्या के बाद और ध्यान समाधि के बाद जप तप और धूल चाटने के बाद व्यक्ति संत बनता है,लेकिन आन लगते ही वह सन्तान बन जाता है,अच्छी तरह से पढा लिखा दो तो वीवी बहक जाती है,और नही पढी लिखी तो जूते मारती है,रात को निश बोलते है,बडी सुहानी होती है,पूरे दिन की थकान को निकालने के लिये आती है,लेकिन वही रात अगर किसी तरह से अन्य के साथ निकाल ली जावे और उसका निशान किसी तरह से शर्ट पर रह जाये,तो क्या हाल हो सकता है,मेरे कहने का मतलब है कि आन शब्द को इस धरती से विदा कर दिया जाये तो पूरे संसार की लडाई ही खत्म हो जायेगी,न तो कोई महान बनने के चक्कर में लडेगा,और न ही कोई इन्सान बनने के चक्कर में भागेगा,न तो कोई कुर्बान होगा,न ही कोई धनवान होगा,सन्तान का दुख भी नही होगा,कल्यान की भी चिन्ता नही रहेगी,पाकिस्तान,अफ़गानिस्तान,ईरान,सभी का कुछ न कुछ सुधार तो होगा ही.