Tuesday, February 5, 2008

बस्तियों में भीड़ बढती जा रही है

बस्तियों में भीड़ बढती जा रही है
एक चिंगारी सुलगती जा रही है.


सारी ऊंची कुर्सियां हिलने लगीं,
भीड अब अंगड़ाई लेती जा रही है.

आग ज्यों ज्यों तेज़ होती जा रही है,
उन हवाओं को अखरती जा रही है.


राख में जो अब तलक खामोश थी,
आज अंगारे उगलती जा रही है.


ये हवा है तेज़ चाकू की तरह
पक्षियों के पर कतरती जा रही है.


चांद से शायद कहीं मतभेद है,
चांदनी छत पर उतरती जा रही है.


उसकी चुप है इक पहेली की तरह,
जितना सुलझाओ उलझती जा रही है.

No comments: