अभी अभी मन्या के चिट्ठे पर 'पागल औरत ' पढी. अच्छी लगी. साथ ही लगा कि इसके विस्तार के तौर पर अपनी एक पुरानी कविता जोड दूं तो ठीक रहेगा. मेरे प्रथम संग्रह 'नक़ाबों के शहर मेँ' से एक कविता 'संस्कार व सभ्यता' प्रस्तुत है.
सड़क के किनारे
सांसी -ठठेरों की एक बस्ती
बस्ती भी क्या
खानाबदोशों के आठ घर भर
बस.
गन्दे से पिल्लों के साथ कुश्ती करते बच्चे
कूड़े के ढ़ेर के पास दरी बिछाये मुखिया.
अध खुले स्तनों से चिपके हुए नवजात
और वहीं आस पास
चार बोतलें,कुछ गिलास लेकर बेठे
कमेरे
सांसी ठठेरे.
देखकर सांसी -ठठेरों की बस्ती
संस्कारवान मैं,
सभ्य, शिक्षित ,सुसंस्कृत समाज का हिस्सा मैं
बुद्धिजीवी मैं,
पचा नही पाया दृश्य को
जी मेँ कुछ उपजा
और थूक दिया मैने बड़ा सा
घृणा का एक हिस्सा
और बढ़ गया
नव-धनाड्यों की उस बस्ती की ओर
जहां लेब्राडोर,अल्शेसिअन ,पामनेरिअन नस्लों को
गोद मेँ उठाये ठीक ललनायें,नव्यौवनायें
गार्डेन चेयर पर
लौन मेँ पावं पसारे बैठे थे मुखिया
लिये मुहं मेँ सिगार
नव्जात को बौटल -फीड देती एक गवर्नेस,
और पास ही
कनोपी के नीचे
बार स्टेंड पर बीयर की चुस्कियां लेते
नव धनाड्य कमेरे.
संस्कारवान मैं,
सभ्य, शिक्षित ,सुसंस्कृत समाज का हिस्सा मैं
बुद्धिजीवी मैं,
पचाने की कोशिश करने लगा दृश्य को ,
जी मेँ उपजा नही कुछ भी
और थूक ही नही पाया
घृणा का कोई हिस्सा.
-अरविन्द चतुर्वेदी
7 comments:
खूब!!!
सही है!
संवेदनशील रचना है...मान्या की रचना का यह वास्तव में विस्तार ही है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
हमारे समाज के सत्य और वर्गों के बीच के द्वंद को परिलक्षित करती है ये कविता... साथ ही हमारे मन के भावों को भी.. सह्जता से कहती है..हमारी तथाकथित सभ्य,सुसंस्कृत, मनोवृति का यही नग्न सत्य है.. और हमसे अनावृत्त स्त्य पचाया नहीं जाता...
बहुत पसंद आयी ये रचना.. मेरी रचना से कहीं ज्यादा विस्तॄत और परिपक्व है.. फ़िर भी मेरी कविता को पसंद करने क शुक्रिया..
बहुत खूब-अच्छा विस्तार दिया और यूँ भी पूर्ण कविता. बधाई.
आपका वर्णन इतना स्वाभाविक एवं मर्मस्पर्शी है कि दिल दहल गया.
@संजीत जी
@अनूप जी
@रजीव रंजन जी
@मन्या जी
@समीर जी
@शास्त्री जी
आप सभी महानुभावों को पधारने, पढ़ने एवम टिप्पिआने हेतु धन्यवाद.
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