Sunday, May 22, 2011

गज़ल: "है अन्धेरों भरी ज़िन्दगी आजकल"

है अन्धेरों भरी ज़िन्दगी आजकल
ढूंढते हैं सभी रोशनी आजकल

खूबसूरत समां खुशनुमा वादियां,
ऐसे सपने भी आते नहीं आजकल

वादा करना,मुकरना तो आदत बना
लोग करते हैं यूं दिल्लगी आजकल

रहजनी जिनका पेशा था कल तक यहां,
वो भी करने लगे रहबरी आजकल

सब्ज़ पत्तों ने ओढा कुहासा घना
जंगलों जंगलों तीरगी आजकल

राम मुंह से कहें और बगल में छुरी
ऐसे होने लगी बन्दगी आजकल

चान्द बादल में खुद को छुपाता फिरे,
बहकी बह्की लगे चान्दनी आजकल

सर से गायब हुई चूनरी ओढनी
और दुपट्टॆ भी दिखते नहीं आजकल
- डा. अरविन्द चतुर्वेदी

1 comment:

शारदा अरोरा said...

बेहद खूबसूरत ग़ज़ल , कमाल है ..कोई भी कैसे अभी तक कोई टिप्पणी न दे सका है ..