नन्दन जी नाम तो धर्मयुग के समय से ही सुनता आ रहा था. उन्हे देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ 1981 में . 10,दरियागंज से टाइम्स की पत्रिकायें निकलती थी. इस बिल्डिंग के ठीक सामने एक छोटी सी चाय की दुकान थी जिसे एक सरदार जी चलाते थे. मैं विज्ञापन एजेंसी ACIL की research division में senior executive था और कलकत्ता से ट्रांसफर हो कर दिल्ली आया था और वहीं पास में मेरा कार्यालय था. लंच के समय वहां चाय पीने के बहाने नियमित आने वालों में थे महेश दर्पण, सुभाष अखिल, सुरेश उनियाल, धीरेन्द्र अस्थाना,रमेश बत्रा. कभी कभी यहां अन्य बडे लेखकों कहानी कारों, पत्रकारों के दर्शन हो जाया करते थे.ऐसे एक बार नदन जी से भी मिलना हुआ. ( वहां एकाध बार सर्वेश्वर जी, योगेश गुप्त, आनन्द स्वरूप वर्मा ,अवध नाराय्ण मुद्गल आदि से भी सामना हुआ था). मैं उन दिनों 'वामा' पत्रिका के लिये लिखता था ( सुश्री मृणाल पांडे सम्पादक थीं),बाद में दस दरियागंज से प्रकाशित 'दिनमान' में भी लिखा,जब सतीश झा सम्पादक बने थे.
कविता का शौक था अत: साहित्यकारों का सानिध्य भाता था. उन्ही दिनों दूरदर्शन पर किसी कवि सम्मेलन मे नन्दन जी की वह कविता जिसमें वह समुद्र से वार्तालाप करते हैं सुनी.जिसमें वह समुद्र को उसके पानी के खारेपन के अतिरिक्त अन्य खामियां गिनाते हैं , बस वहीं से मैं श्री नन्दन का प्रशंसक बन गया. उसके बाद तो जैसे जैसे उन्हे पढता और सुनता गया ,उतना हे उनके प्रति सकारात्मक भाव बनते गये.
मैं मालवीय नगर में रहता था. वहीं एक बार 'सागर रत्ना' नामक रेस्त्रां में उनसे भेंट हुई. मैं कानपुर का हूं और यह जानकर खुशी हुई कि नन्दन जी का समय भी कानपुर में बीता तो आत्मीयता बढी.
बाद में जब मेरी पहला कविता संग्रह 'नक़ाबों के शहर में' प्रकाशित हुआ( जिसकी भूमिका डा. केदार नाथ सिंह् ने लिखी थी)तो इसकी एक प्रति मैने नन्दन जी को भी भेंट की. उनदिनों नन्दन जी एक स्तम्भ 'जरिया-नजरिया' लिखते थे और इसी स्तम्भ में उन्होने 'मेरी पसन्द' नाम से कुछ कवितायें देना प्रारम्भ किया. इसी स्तम्भ में उन्होने मेरी एक कविता का ज़िक्र भी किया और मेरा परिचय भी अपने स्तम्भ में दिया. मैं गद्गद हुआ और उनके घर ( 132 कैलाश हिल्ल्स) जाकर मिला.
1999 में मेरा गज़ल संग्रह प्रकाशनाधीन था. मेरे अनुरोध पर वह उसकी भूमिका लिखने के लिये तैयार हो गये.( देखें उनके हस्त-लिखित अग्रलेख की प्रति). मेरी गज़लों पर प्रतिक्रिया देते हुए उन्होने लिखा "... और इस तरह अरविन्द जी दुष्यंत की जलाई हुई मशाल का दंडमूल थामे आगे बढते हुए नज़र आते हैं ..". इस अग्र-लेख का शीर्षक भी उन्होने ही दिया- " इंसानी ज़िन्दगी के अक्स"
फिर वह गिरने से चोट लगने के कारण AIIMS में भर्ती रहे तो उन्हे देखने भी गया. उन्हे बातचीत में जानकारी हो गयी थी कि मेरी पत्नी provident fund ( भविष्य निधि ) में प्रवर्तन अधिकारी हैं . उन्हे अपनी पुराने नियोक्ता से धनराशि मिलने में कुछ कठिनाई हो रही थी. मेरे अनुरोध ( कि मैं उनके घर आकर जानकारी ले लूंगा) करने के बावज़ूद वह स्वयं मेरे घर आये और सारे कागज़ -आदि सौंप गये.
फिर जब उनका संग्रह ' बंजर धरती पर इन्द्र धनुष' ( जो उनके स्तम्भ -मेरी पसन्द - में छपी कविताओं आदि का संग्रहीत रूप था), तो इसमें भी उन्होने मेरी कविता को स्थान दिया ( पृष्ठ 155-156, देखें स्कैन प्रति).इस पुस्तक के विमोचन पर जो डा. कर्ण सिंह ने किया था, दिल्ली का पूरा साहित्य जगत उपस्थित था.
मेरी उनसे अंतिम मुलाक़ात पिछले वर्ष एक साहित्यिक गोष्ठी में हुई थी ,जिसमे उन्होने मेरी पसन्द की कविता 'सूरज की पेशी' सुनाई थी. मैने कुछ दोहे व गज़ल पढी थीं जिसे उन्होने सराहा .
बहुत कम ही ऐसे साहित्यकार रहे हैं जो स्फल पत्रकार भी बने . टाइम्स समूह में यह परम्परा ही रही.नन्दन जी इन्ही गिने चुने साहित्यकारों मे से थे. बाद में एलेक्ट्रोनिक मीडिया आने के बाद भी वह इन-चैनल के सम्पादक रहे.
नन्दन जी अपने प्रिय पाठकों, मित्रों, सहकर्मियों आदि में अपने स्वभाव के चलते लोकप्रिय बने रहे. वह ऐसी शख्सियत नहीं थे जो आसानी से भुलाई जा सके.
मेरी श्रद्धांजलि.
1 comment:
इस संस्मरण एवं आलेख से बेहतर श्रद्धांजलि और क्या हो सकती है...हमारी भी श्रद्धांजलि.
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