Saturday, March 1, 2008

ज्ञानेन्द्रपति की कविता ----आप साहित्य प्रेमी हैं अथवा नहीं- इसे अवश्य पढें

अर्सा पहले एक मशहूर कवि की पुस्तक प्रकाशित हुई. जैसा कि अपेक्षित था-पुस्तक काफी चर्चित हुई. एक हिन्दी पत्रिका में पुस्तक की समीक्षा करते हुए आलोचक ने लिखा कि पुस्तक की अधिकांश रचनायें राजनैतिक टोन वाली हैं और तथा इन कविताओं का राजनैतिक तत्व उन पर हावी है,जो कविता को कमज़ोर करता है.

1999 में मेरा दूसरा संग्रह “चीखता है मन” प्रकाशित हुआ. ( भूमिका श्री कन्हैयालाल नन्दन ने लिखी थी). इसके परिचय में मैने लिखा कि यदि कवि की रचना पर उसका राजनैतिक सोच हावी होता है तो क्या हर्ज़ है? प्रश्न सिर्फ यह होना चाहिये कि कवि अपने सोच के प्रति ईमानदार है अथवा नहीं.
पिछले माह पुस्तक मेले में किताबघर द्वारा प्रकाशित ‘कवि ने कहा’ ( ज्ञानेन्द्रपति) के पन्ने पलट रहा था. पहली ही कविता दिल को छू गयी और पुस्तक खरीद ली. मेले से घर वापसी के लिये जैसे ही प्रगति मैदान स्टेशन से मेट्रो में बैठा ,अपना स्टेशन ( द्वारका ) आने तक अनेक कवितायें पढ़ गया. तब से कई कवितायें दो दो बार पढी हैं, घर पर बच्चों को भी सुनायी हैं . हांलाकि मैं रचनाकर की राजनैतिक सोच से सहमत नहीं हूं ,परंतु कविता से बुरी तरह प्रभावित हूं, या कहिये कि मुरीद हो गया हूं.
य़ह सब इसलिये कहना पडा कि मैं चाहता हूं कि आप इस कवि को पढें. उनकी कुछ कवितायें बहुत लम्बी है, तीन रचनायें ,जिनसे कवि का सोच उजागर होता है और तेवर झांकता है, यहां प्रस्तुत हैं.---)



कुछ कविताऎं और कुछ कविताऍं

कुछ कविताऍं
तो मैं खेतों से शकरकन्द की तरह खोदकर लाया
कुछ कविताऍं
तितलियों की तरह ,खुली खिडकियों से,
घुस आयीं मेरे घर
कि अपने घर .
कुछ कविताओं के लिये मैं कितना कितना घूमा
गो-यूथों के पीछे पीछे चरवाहे बालक सा ,
कि सांझ उन्हें दुह सकूं
धारोष्ण.
कुछ कविताऍं
कई कई बिट्वन की कुतिया माता सरीखी
दुधीले थन और गीली थूथन लिये ,
लगीं चलीं आयीं सडक से
पीछे पीछे मेरे दुआरे.,


एक गर्भवती औरत के प्रति

यह तुम्हारा उदर ब्रह्माण्ड हो गया है.
इसमें क्या है? एक बन रहा शिशु भर?
झिल्ली में लिपटी मांस पहनती चेतना. बस ?
कितनी फैलती जा रही है परिधि तुम्हारे उदर की
तुम क्या जानो कि अंतरिक्ष तक चली गयी है यह विरूप गोलाई और ये
पेड-पौधे,मकान,सडकें,मैं,यह पोल ,वह कुत्ता,उछलता वह मेढक,
रँभाती गाय,बाड़ कतरता माली, क्षितिज़ पर का सूरज
सब उसके अन्दर चले गये हैं और तुम भी.



नदी और नगर
नदी के किनारे
नगर बसते हैं
नगर के बसने के बाद
नगर के किनारे से नदी बहती है,

1 comment:

Unknown said...

सचमुच विस्तार सी ही कविताएँ हैं - अच्छी अनुभूति हुई - इन्हें उतना ही पढ़ सकते हैं जितना आप पढ़ाएं - धन्यवाद - सादर - मनीष