बन्धुवर,
इसके पहले कि आप किसी गँभीर राजनीतिक बहस से दो-चार होँ ,एक गज़ल का अनन्द ले लैँ.इसके तेवर ज़रूर कुछ कुछ राजनीतिक है .चुँकि आज की टिप्पणी का विषय भी कुछ कुछ कुर्सियाना है अत: मुझे यह गज़ल सबसे उपयुक्त लगी. हाज़िर है:
बूढ़े सभी दरबार मेँ हाज़िर सलाम को
खामोश हैं क्या हो गया उनकी ज़ुबान को
बच्चोँ ने अपने हाथ मेँ झन्डे उठा लिये
वो ही निकल के आयेंगे अब इंतज़ाम को
तख्ती वो मेरे नाम की लेकर चला गया
दिन भर मैँ ढूँढता रहा अपने मकान को
पीने को चान्दनी उस अमावस की रात मेँ,
चन्दा टटोलता ही रहा आसमान को
अब तो बगावतोँ के बीज़ बो दिये गये
नारे सिखा दिये गये हैँ बेज़ुबान को
क़हते हैँ सभी मिल के अन्धेरोँ से लड़ेंगे
जुगनू इकट्ठे हो रहे हैँ रोज़ शाम को.
कल श्री लालू प्रसाद यादव का इमर्जैंसी (आपातकाल 1975) सम्बन्धी बयान एक बार तो चौंका गया.फिर धीरे धीरे एहसास हुआ कि आखिर रोजी-रोटी ( मंत्रिपद) का सवाल है. यदि अपनी रोजी-रोटी को बचाने के लिये कहीँ कुछ ऊल-जुलूल भी बोलना पडे तो ..चलता है.
पहले मेँ एक शाकाहारी स्पष्टीकरण देता चलूँ. मेरी इस टिप्पणी से किसी भी राजनीतिक दल का कोई जायज़ अथवा नाजायज़ सम्बन्ध नही है.साथ ही यह भी कि मेरी टिप्पणी किसी व्यक्ति विशेष के विरुद्ध न होकर एक मानसिकता पर केन्द्रित है.
अब आइये लालू जी के बयान पर. लालू जी वाराणसी नगर मेँ चुनाव प्रचार के लिये गये थे. सबको मालूम है कि उत्तर-प्रदेश के चुनावोँ मेँ लालू जी की पार्टी के प्रत्याशियोँ की भूमिका एक 'बिज़ूका' से भिन्न नही है.चूंकि उन्हें कांग्रेसी प्रत्याशियोँ का समर्थन करना था अत: जोश ही जोश मेँ कुछ ज्यादा ही बहक गये. इस बयान मेँ तीन बातेँ चौंकाने वाली थी.
पहली यह कि इमेर्जैंसी(आपातकाल)अनुशासन की दृश्टि से उचित थी. दूसरी बात कि लोकनायक जय प्रकाश नारायण द्वारा चलाया गया आन्दोलन दर असल लालू जी द्वारा ही शुरू किया गया था और लालू जी ने ही कमान लोकनायक के हाथोँ मेँ सौँप दी थी. तीसरी यह कि यदि आवश्यकता हुई तो अनुशासन के लिये फिर से इमेर्जैंसी(आपातकाल) लागू की जा सकती है.
यह भारत की राजनीति की बिडम्बना ही है कि कल तक इमेर्जैंसी(आपातकाल) को पानी पी पी कर कोसने वाले आज उसका समर्थन करने पर उतारू हैँ.1975 मेँ जेल मेँ ठूंसे गये ( बड़े या छोटे)नेताओँ मे से अधिकांश आज काँग्रेस के साथ हैँ. बात चाहे लालू यादव की हो या राम विलास पासवान की,सुबोध कांत सहाय की हो राम नरेश यादव की. यह भारतीय राजनीति का चरित्र दर्शाता है. दूसरी तरफ भी तस्वीर अधिक भिन्न नही है. इमेर्जैंसी(आपातकाल) का घनघोर समर्थन करने वाले आज धुर-विरोधी भाजपा मेँ शामिल है. जी हाँ , मैँ जगमोहन, मनेका गान्धी, जैसे भाजपाइयोँ की बात कर रहा हूँ. यानि दोनोँ तरफ कमो-बेश वोही स्थिति है.
एक बार फिर लालू जी पर. ळालू जी जितना भी चाहेँ इत्र इटली से आयात कर के लगा लेँ, चारा घोटाले की सड़ान्ध दूर नही हो सकती. कुछ लोगोँ की टिप्पणी थी कि एसा बयान उन्होने सीबीआई जांच से बचने के लिये दिया है.
लालू जी को क्या सूझी कि इतिहास पुरुष लोकनायक की बराबरी करने चले हैँ. उस दौर की राजनीति समझने वाले भली तरह जानते है कि बिहार का युवा तब ही आन्दोलित हुआ जब उसने गुजरात के नवनिर्माण आन्दोलन की सफलता देखी और प्रेरित हुआ. कहने की आवश्यकता नही कि लोकनायक जय प्रकाश नारायण का राजनीतिक कद इतना ऊंचा था कि लालू जी उसकी बराबरी तो दूर उसको छू भी नही सकते.
आज की राजनीति 'नीति' से कितना दूर है,यह तो इन वर्तमान राजनेताओँ के कार्यकलापोँ से प्रकट है ही.लालू जी ने उतावलेपन मेँ जो खतरनाक् बात कही वह ये कि यदि आवश्यकता हुई तो फिर आपातकाल लगाया जा सकता है.लालू जी क्या आपको नही लगता कि अतिउत्साह मेँ कुछ ज्यादा ही बोल गये.क्या फिर सँविधान संशोधन का इरादा है?
बन्धुओ ,विषय गहरा है. बहुत कुछ कहने को है ,परंतु की बोर्ड को विराम दे रहा हूँ ताकि फिर कुछ कहने को शेष रहे.
आपका अपना
अरविन्द चतुर्वेदी
2 comments:
अच्छी विसंगति की ओर ध्यान आकर्षित किया है आपने..
सुन्दर लिखा है आपने...आज कल यही स्थिति है हर और...
तख्ती वो मेरे नाम की लेकर चला गया
दिन भर मैँ ढूँढता रहा अपने मकान को
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