यूँ तो कहते हैँ कि भारत विविधताओँ का देश है. यहाँ अनेकता मेँ एकता के साक्षात दर्शन होते हैँ. हम इसे अपने देश का स्थायी गुण ही मानते आये हैँ और गर्व से सर उठाकर भाषा ,धर्म,जाति,सम्प्रदाय,वेश-भूषा ,खान पान, संस्कृति,रीति-रिवाज़ के विभिन्न रूपोँ को अपनाते आये हैँ. परंतु बन्धुओ, इधर हाल मेँ चन्द समाचार ऐसे आये है,जिससे मन तो खिन्न होता ही है, इस पारम्परिक शक्ति पर भी प्रश्न चिन्ह सा लगता प्रतीत होता है.
कुछ ही दिन पहले की बात है कि असम के कुछ जिलोँ मेँ कथित उग्रवादियोँ के हाथोँ अनेकोँ हिन्दी भाषियोँ की हत्या कर दी गई. उनका कसूर सिर्फ इतना था कि वे अपनी मिट्टी ,अपना गाँव,अपना वतन छोड्कर सुदूर पूर्व मेँ रोज़ी-रोटी की तलाश मेँ गये थे. कल के समाचार पत्रोँ मेँ पढा कि असम के ही रंगिया रेल अनुमँडल मेँ सहायक स्टेशन मास्टर की नौकरी पर नियुक्त चन्द हिन्दी भाषी युवक जब पद भार ग्रहण करने पहुंचे तो स्थानीय लोगोँ ने पिटाई करके गम्भीर रूप से घायल कर दिया. इन्मेँ तीन की हालत गम्भीर है.( दैनिक जागरण, 25 अप्रेल)
कुछ ही दिन पहले एक और समाचार आया था कि मुम्बई के 'उभरते' राजनेता राज ठाकरे ने अपनी (क्षुद्र) राजनीति चमकाने के लिये महाराष्ट्र के युवकोँ को नारा दिया था कि यदि कोई बिहारी ( यानी गैर मुम्बई वाला हिन्दी भाषी) तुम्हे तंग करें तो उसके कान के नीचे ..बजा दो.
धिक्कार है!!!.
उधर सुदूर दक्षिण मेँ अन्नाद्रमुक पार्टी ने आरोप लगाया है कि करुणानिधि की द्रमुक सरकार के राज मेँ ब्राह्मणोँ पर आक्रमण हो रहे हैँ,उनके साथ दुर्व्यवहार हो रहा है. मन्दिरोँ के ब्राह्मण पुजारी विशेष रूप से निशाना बनाये जा रहे हैँ.
हम तो यही पढते आये थे कि भारत एक धर्म-निरपेक्ष देश है. यहाँ सबको बराबर के अधिकार मिले हैँ. पूरे देश मेँ कहीँ भी रहने ,काम करने की पूरी आज़ादी है.
दूसरी तरफ जरा कश्मीर का नज़ारा ले लेँ.वहाँ सैयद अली शाह जीलानी साहब ने पिछ्ले रविवार को एक रैली की जिसमेँ कहते हैँ कि पकिस्तान समर्थक नारे लगाये गये.पुलिस की छान-बीन अब यह कहती है कि वहाँ कोइ उग्रवादी नहीँ था और न ही वहाँ लश्करे-तय्यबा का कोइ झंडा फहराया गया.
क्योँ सुनील बाबू? बढिया है!!!!
हमारे सियासत दाँ चुप हैँ. जहाँ भी उन्हें बोलने की जरूरत होती है वहीँ चुप लगा जाते हैँ.
कोई नारे नही, कोई हंगामा नही ?
इस देश का यारो क्या कहना.
बन्धुओ, आज की बात के समापन के तौर पर फिर गज़ल के चन्द शेर् अर्ज है:
बाजू कटे हुए हैँ मगर कोई गम नहीँ
ये शख्स लडाई के लिये फिर भी कम नहीँ
हर बार की तरह वो फिर आया है सडक पर
इस बार मत कहो कि इस कोशिश मेँ दम नहीँ
पत्तोँ ने कसम खाई है, आँधी से लडेंगे
अब इस कसम से बढ के कोई भी कसम नहीँ
शेष फिर
आपका अपना
अरविन्द चतुर्वेदी
3 comments:
आपने गम्भीर प्रश्न उठाया है, हम सबको इस विषय मे गम्भीरता पूर्वक सोचना होगा।
मसला विचारणीय है.
इन उलझावों का सिरा कहाँ है जिस खींच कर सुलझाने की कुछ कोशिश करें।
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