Thursday, November 1, 2007

चले गये “चल गई” वाले शैल जी





मंगलवार को दिन में लगभग बारह बजे पंडित सुरेश नीरव का फोन आया. बातचीत पूरी होते होते उन्होने पूछा कि क्या शैल जी के बारे में कुछ सुना है ? मैने पूछा तो उन्होने बताया कि लखनऊ से फोन पर अपुष्ट सूचना प्राप्त हुई है. किंतु टीवी रेडिओ पर कहीं कुछ नहीं है. शाम होते होते मीडिया में भी खबर फैल गयी. शैल जी चले गये. 1970 के आसपास की बात रही होगी. आगरा शहर अपने चचेरे भाई की बारात में गया था. शैल जी कन्या पक्ष की ओर से समारोह में उपस्थित हुए थे . शैल जी तब तक मशहूर हो चुके थे .लोग नाम से अच्छी तरह वाक़िफ थे. बच्चों ने घेर लिया और शैल जी ने सबको खुश कर दिया. आने वाले वर्षों में शैल जी की लोकप्रियता तेजी से बढी. पहले फिल्म और फिर टीवी पर हास्य कलाकार व चरित्र अभिनेता के रूप मे. कवि सम्मेलनों के प्रमुख कवि ही नही वरन एक स्तम्भ बन चुके थे. 1997 मे मालवीय नगर दिल्ली के एक कवि सम्मेलन में भेंट हुई उसके बाद दर्शन लाभ नही मिल सका.
“चल गई” उनकी एक प्रसिद्ध हास्य कविता है. इस कविता की कवि सम्मेलनों में बहुत फरमाइश होती थी. काका हाथरसी ने उनके बारे में कुछ यूं कहा :

शैल मंच पर चढे तब मच जाता है शोर्
हास्य व्यंग्य के “शैल”यह जमते हैं घनघोर
जमते हैं घनघोर, ठहाके मारें बाबू
मंत्री संत्री लाला लाली हों बेकाबू
काका का आशीष ,विश्व में ख्याति मिलेगी
बिना चरण “चल गयी” हज़ारों वरष चलेगी,


शैल जी ने मस्ती भरा विशुद्ध हास्य भी लिखा. पैना व्यंग्य भी. एक बानगी देखिये:


हमारे देश का प्रजातंत्र
वह तंत्र है
जिसमें हर बीमारी स्वतंत्र है
दवा चलती रहे,बीमार् चलता रहे
यही मूल मंत्र है.


नेता उनका प्रिय विषय था. उन्होने लिखा -

नये नये मंत्री ने
अपने ड्राइवर से कहा
”आज कार हम चलायेंगे”
ड्राइवर बोला
”हम उतर जायेंगे
हुज़ूर!
चलाकर तो देखिये
आपकी आत्मा हिल जायेगी
ये कार है,सरकार नहीं
जो भगवान भरोसे चल जायेगी”



शैल जी के जाने से निश्चय ही हिन्दी हास्य व्यंग्य मे एक रिक्तता आयी है,जिसकी पूर्ति फिल्हाल होती नही दिखती.
मेरी विनम्र श्रद्धांजलि.



( अंतर्जाल पर कल ही एक जानकारी पूर्ण आलेख शैल जी पर मिला, दैनिक भास्कर के बिलास्पुर संस्करण्
मे. पूरा आलेख जस का तस साभार यहां प्रस्तुत् है)



शहर से शुरू हुआ था शैल का सफर

हर्ष पाण्डेय


बिलासपुर. कभी क्लास रूम में अपने चुटकुलों और मिमिक्री से साथियों को हंसी के ठहाके लगवाने वाले ‘कक्काजी’ की बातें पूरे देश में लोगों को गुदगुदाएंगी, यह स्वयं उन्हें भी पता नहीं रही होगी। हंसी के इस वृक्ष ने जीवन भर पूरे देश को हंसाया, उसके बीज बिलासपुर की गलियों में पड़े थे।
टीवी सीरियल ‘कक्काजी कहिन’ और ऐसे ही कई सीरियल व फिल्मों के अलावा मंच पर सीधे संवाद कर दर्शकों को हंसाते-गुदगुदाते रहने वाला यह फनकार लोगों को हमेशा के लिए रुलाकर बिछुड़ गया। हम चर्चा कर रहे हैं शैल चतुर्वेदी की।
शायद कम लोगों को ही पता है कि राष्ट्रीय स्तर के कवि, लेखक और हास्य अभिनेता शैल चतुर्वेदी के जीवन के चुनिंदा दिन शहर की गलियों में गुजरे हैं। शैल चतुर्वेदी का नाम सुनते ही मन में उनकी तस्वीर उभर आती है, ऊंचा डील-डौल, भारी शरीर, चेहरे पर हर वक्त मुस्कुराहट और चुटीले संवाद। अपनी कविताओं के दीवानों से ‘कक्काजी’ आज सदा के लिए बिछुड़ गए और छोड़ गए अपनी यादें।
दयालबंद की गलियों में किशोर ‘शैल’ के कुछ महत्वपूर्ण बरस बीते, जब वे गवर्नमेंट स्कूल के क्लास रूम में बैठकर अपने साथियों को चुटकुले और मिमिक्री सुनाया करते थे। 1950 के दशक में हाईस्कूल में पढ़ाई के दौरान यही वह पड़ाव था, जब उन्होंने चुटकुलों को छंद-कविताओं का रूप दिया और न जाने कब ये कविताएं देशभर में रसिक श्रोताओं के दिलोदिमाग में छा गईं। उस दौरान उनके परिवार के संपर्क में रहे शहर के वरिष्ठ साहित्यकार डा. विनय कुमार पाठक बताते हैं कि शैलजी उनके बड़े भाई डा. विमल पाठक के सीनियर स्टूडेंट थे।
श्री चतुर्वेदी के पिता गवर्नमेंट स्कूल में गणित के टीचर थे और प्रमोशन के बाद प्रिंसिपल बने। डा. पाठक पढ़ाई के सिलसिले में शैल के घर अक्सर आते-जाते थे। बचपन में श्री चतुर्वेदी अपने डील-डौल, हास्य-व्यंग्य प्रदर्शित करते चेहरे और संवादों से सहपाठियों की हंसी का कारण बनते थे। यूं कहें कि उनकी चाहत भी यही थी कि हर इंसान हमेशा हंसता रहे।
उम्र की अंतिम दहलीज तक उनका उद्देश्य दूसरों के चेहरे पर मुस्कुराहट लाना रहा है। हाईस्कूल की पढ़ाई के बाद श्री चतुर्वेदी अपने परिवार के साथ होशंगाबाद चले गए थे। समय बीता, दशकों बाद 1970 में वे बिलासपुर आए तो शहर की गलियों और अपने स्कूल को याद करना न भूले। यहां जाजोदिया भवन में कार्यक्रम के दौरान मंच पर माइक संभालते ही श्री चतुर्वेदी ने शहर में बिताए दिनों को याद करते हुए कहा था कि वे यहां की गली-गली से वाकिफ हैं। इस शहर ने उन्हें जो कुछ दिया है, उसे वे कभी नहीं भूल सकते।
वर्ष 2001 में वे बिलासपुर आए थे, तब शायद किसी को यह अंदेशा नहीं रहा होगा कि ‘कक्काजी’ का यह अंतिम प्रवास है। डा. विनय पाठक कहते हैं कि उन्होंने हास्य-कविताओं के माध्यम से हिंदी को लोकप्रिय बनाने की दिशा में भी काफी काम किए हैं।
शैलजी के परिवार के करीब रहे वरिष्ठ साहित्यकार डा. पालेश्वर शर्मा बताते हैं कि उनके पिता के साथ-साथ उनके ताऊ जगन्नाथ प्रसाद चौबे ‘वनमाली’ ने भी यहां शिक्षा के क्षेत्र में योगदान दिया था। गवर्नमेंट स्कूल में उनके सहपाठी रहे कई लोग अब इस दुनिया में नहीं हैं और जो सहपाठी या परिचित हैं, उन्हें ‘कक्काजी’ के बिछुड़ने का दुख जीवन भर सालता रहेगा।

कविताओं की लाइन लिखते-लिखते न जाने कब श्री चतुर्वेदी राज्य और फिर राष्ट्रीय स्तर के कवि बन गए। उन्होंने न सिर्फ कविताएं लिखीं, बल्कि गोपाल व्यास, काका हाथरसी और हुल्लड़ मुरादाबादी की काव्य परंपरा को विकसित करने में भी योगदान दिया। उनकी कई कृतियां प्रकाशित हुईं, जिनमें से एक ‘चल गई’ पूरी दुनिया में खूब चली। इसके लिए उन्हें ‘काका हाथरसी सम्मान’ और ‘ठिठोली पुरस्कार’ भी मिल चुका है।

5 comments:

Anita kumar said...

शैल जी को मेरी भी भावपूर्ण श्रद्धांजली, मेरे भी प्रिय कवियों में से एक थे

Vikash said...

व्यंग्य का एक स्तंभ ढह गया. 'चल गयी' कविता मुझे भी बहुत पसंद है. लेकिन शैल जी जैसे कवि कहीं जाने वाले नहीं हैं. वो तो हमेशा अपनी कविताओं में हमारे बीच रहेंगे.

मेरे श्रद्धा के कुछ पुष्प शैल जी के लिये.

Udan Tashtari said...

शैल जी को मेरी भी हार्दिक श्रद्धांजली. ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे. उनसे व्यक्तिगत मुलाकातें याद आती हैं.

Rajeev (राजीव) said...

शैल जी ने अपने कविताओं में आम विषयों पर हास्य रचनाओं से देश विदेश के श्रोताओं को एक अरसे तक हंसाया। साथ ही अनेक राजनैतिक विसंगतियों पर भी प्रत्यक्ष प्रहार भी किये। "चल गयी" तो अपने आप में एक मील का पत्थर थी। उनके देहावसान का समाचार पढ़कर हमें भी बरबस ही उस कविता की याद हो आयी, कविता तो पूरी याद नहीँ आयी, पर उसके भाव स्मृति पटल पर अंकित हैं। हमें हँसाने और गुदगुदाने वाले इस कवि के देहावसान से निश्चय ही कविता प्रेमियों को दु:ख पहुँचा है। ईश्वर उन्हें सद्गति प्रदान करे, यही हमारी प्रार्थना है।

चिराग जैन CHIRAG JAIN said...

नमस्कार अरविंद जी
हिन्दी चिट्ठों कि छपास और टिप्पणी लोलुपता के बीच आपका चिट्ठा कुछ हटकर दिखाई दिया। शैल जी के निधन का समाचार जिस शैली में आपने प्रस्तुत किया है उससे यकायक ऐसा लगा कि शैल जी पुन: सामने आ खडे हुए हैं। आपका यह दस्तावेज सार्थक ही नहीं अनुप्रेरक भी है। साधुवाद!