Sunday, June 10, 2007

अभिमन्यु की भटकन

कभी कभी बन्द् किवाडों को खोलकर्
जी चाहता है
बाहर् घूमूं
और् समय् की नब्झ् पर् हाथ् रखकर्
टटोलूं
और् देखूं
कैसे करता है मौसम्
समय् के बुखार् की तीमारदारी .

बस्ता उठाये ,बतियाते जाते
दो बच्चे
देखते ही
ओस बन जाने जैसा महसूस करता हूं,
जैसे गुजर् गया होऊं
किसी फूलों की क्यारी के बीच्.

सड़क पर आते ही घबरा सा जाता हूँ
वाहनोँ की चिल्ल पोँ
बेतहाशा रफ्तार से भागती दुनिया,
किसी तूफान की आशंका से भर जाती है मुझे
बस के अन्दर
किसी कन्या के गदराये उरोजोँ को छूने की
एक अधेड़ पुरुष की कोशिश
किसी कीचड़,किसी दलदल मेँ फेंक जाती है मुझे.
एक असफल अभिमन्यु बनकर
फंसा रहूँ दलदल मेँ
या
घर लौट कर कर लूँ फिर
बन्द
अपने किवाड़ोँ को?
- अरविन्द चतुर्वेदी

5 comments:

Reetesh Gupta said...

अच्छा लगा पढ़कर ...

अनूप शुक्ल said...

अच्छा दिखते हैं, अच्छा लिखते हैं!

Gyan Dutt Pandey said...

हर कोई अर्जुन थोड़े ही बनेगा. कोई तो अभिमन्यु होगा ही.
अभिमन्यु अपने को असफल माने यह अभिमन्यु की गलती. अन्यथा अभिमन्यु जब गया होगा तो उसके मन में हताशा नहीं, अपनी वीरता पर संतोष रहा होगा.
आप हताशमन न हों. अभिमन्यु एक रोल मॉडल है!

Anonymous said...

बस्ता उठाये ,बतियाते जाते
दो बच्चे
देखते ही
ओस बन जाने जैसा महसूस करता हूं,
जैसे गुजर् गया होऊं
किसी फूलों की क्यारी के बीच्.
इस पद ने दिल छू लिया ।

महावीर said...

अरविन्द जी
आपकी काविता में भावुकता और बौद्धिकता का सुंदर समन्वय है। इस कविता में भावना है और हर भावना के सामने एक प्रश्न-चिन्ह सा दिखाई देने लगता है।
सांस्कृतिक ढांचा चरमरा उठा है और यही अनदिखे प्रश्न चिन्ह उसी के ध्वनि मात्र हैं।
बहुत ही परिपक्व प्रभावशाली कविता है।