Thursday, June 7, 2007
अमूल मैचो अंडरवियर का विज्ञापन बनाम अश्लीलता की परिभाषा
विज्ञापनोँ मेँ नारी देह के शोषण की बात लगता है अब पुरानी हो गयी है. यौन सुख को फंतासी मेँ पिरोकर पाठकोँ /दर्शकोँ को परोसना विज्ञापन दाताओँ का नया शगल है. अपनी बात को स्पष्ट करने के लिये आपको 'अमूल- मैचो' अंडरवियर के उस विज्ञापन श्रंखला का जिक्र करना चाहूंगा, जिसे अश्लील मानकर ए एस सी आई ( एड्वरटाइजिंग स्टैंडर्ड्स काउंसिल औफ इंडिया- इसे आप भारत मेँ विज्ञापन-पुलिस या सेंसर भी मान सकते हैँ.)के पास शिकायत भेजी गयी थी. ठीक अभी दो दिन पूर्व ही ए एस सी आई ने उस शिकायत को अमान्य करते हुए इस विज्ञापन को 'श्लील' होने का प्रमाणपत्र दे दिया.
पहल्रे वह विज्ञापन: लगभग छह माह पूर्व अमूल अंडरवियर ब्रांड के निर्माताओँ ( इससे अमूल डेरी /दुग्ध उत्पादक का कोई दूर दूर का भी सम्बन्ध नही है) एक विज्ञापन एजेसी ( सैंट्स एंड वारियर्स- हिन्दी मेँ नाम हुआ-साधू एवम योद्धा) से टीवी विज्ञापन फिल्म बनाने हेतु करार किया.इस एजेंसी के पुष्पिन्दर् सिंह -पुष्पी( फोटॉ देखें) ने विज्ञापन बनाया .इस विज्ञापन फिल्म के निदेशक का नाम है बड्डी, और नायिका है साना खान .इसे ब्लेक मैजिक फिल्म्स ने बनाया है, जिसे अरविन्द नामक् कैमरामेन ने फिल्माया है. इस विज्ञापन मेँ एक नव विवाहित महिला कपड़े धोने तालाब पर जाती है.पुरुष (शायद अपने पति) का गन्दा अंडरवियर गठरी से निकाल कर धोती है. जिस हाव भाव को दर्शाया गया है,उससे लगता है वह कल्पना लोक मेँ खो गयी है तथा अंडरवियर धोने से उसे 'अज्ञात'सुख प्राप्त हो रहा है.तालाब किनारे खडी अन्य महिलायें भी 'बड़ी हसरत' से यह देखती हैं. फ़िर हमारे विज्ञापन की नायिका एक सोटी से अंडरवियर पीटने वाली होती है,तब अन्य महिलायें मुंह बिचकाती नजर आती हैँ कि हाय राम 'इसे' मत पीटो प्लीज़.आवाज़ आती है 'अमूल मैचो- क्रफ्टेड फार फेंटासीज'. विज्ञापन मेँ पृष्ठ भूमि मेँ आवाज़ आती है:' ये तो बड़ा टॉयिंग है,ये तो बड़ा टॉयिंग है,ये तो बड़ा टॉयिंग है.......'
विज्ञापन तमाम चैनलोँ पर प्राइम टाइम पर दिखाया जा रहा है. देखने वालोँ ने इसे पसन्द नही किया. आपात्तियां आने लगी कि यह घर मेँ बठकर सबके साथ नही देखा जा सकता .इसे अश्लील कहा गया. लोगोँ ने फूहड,गन्दा, विकृत आदि आदि कहा.
फिर मई माह मेँ ए एस सी आई को शिकायत की गई .ए एस सी आई द्वारा सम्बधित व्यक्तिओँ को नोटिस जारी हुए, सुनवाई हुई और अब फैसला आ गया कि विज्ञापन इतना खराब नही हैकि इस पर रोक लगाने जैसा कठोर /भयानक फैसला लिया जाये. यानि कि अब हरी झंडी मिल ही गयी.
इस बीच सी एन एन चैनल ने एक सर्वेक्षण किया जिसमेँ (कहते हैँ) 5000 लोगोँ ने भाग लिया. 49% ने इसे अश्लील नही माना जब कि 51% ने अश्लील माना.
विज्ञापन एजेंसी व अमूल अंडर्वीयर के निर्माता खुश है और कहते है कि इस विज्ञापन से हमारी बिक्री 35 % बढ़् गयी है.ए एस सी आई की हरी झंडी मिलने के बाद अब इसे सिनेमाघरोँ मेँ भी दिखाया जायेगा और इसके लिये इसे सेंसर बोर्ड का प्रमाणपत्र भी मिल गया है. मजे की बात है कि कोलकाता एड्वर्टाइजिंग क्लब ने इस विज्ञापन को एक पुरस्कार भी दिया है.
पश्न है कि क्या टीवी विज्ञापनोँ के लिये अलग से एक सेंसर बोर्ड होना चाहिये?क्या यही हल है?क्या ए एस सी आई जैसी एजेंसियों मे बैठे लोगोँ ने अपने घरोँ मेँ अपनी बहू-बेटियोँ के साथ यह विज्ञापन देखा है?
क्या विज्ञापनोँ के लिये कोई मानक / कोई आचार सन्हिता होनी चाहिये? इन प्रश्नोँ के साथ अन्य जुड़े हुए प्रश्नोँ
और विज्ञापनोँ पर् चर्चा फिर कभी.
वैसे मेँ मित्रों की जानकारी के लिये बता दूं कि अस्सी व नब्बे के दशक मेँ मैं स्वयम विज्ञापन जगत से अनेक वर्षोँ तक जुडा रहा था.
अरविन्द चतुर्वेदी
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16 comments:
I agree with you its totally a advertisement that should be banned . When my 12 year neice was singing the jingle that is being played with the advertisemnt i did not ewven feel like asking hjer the meaning . I was afraid to ask because i think she understands the advertisement
where is this ad business moving to ?
अरविंद जी, दिक्कत ये है कि एएससीआई के बोर्ड में कॉरपोरेट सेक्टर के अधिकारी ही भरे पड़े हैं। निदेशक बोर्ड के चेयरमैन हैं प्रॉक्टर एंड गैम्बल के एमडी शांतनु खोसला, वायस चेयरमैन हैं बेनेट कोलमैन के भास्कर दास, टाटा मोटर्स के राजीव दुबे इसके कोषाध्यक्ष हैं। बाकी सदस्यों में ब्रिटानिया इंडस्ट्रीज, हिंदुस्तान लीवर और कई नामी गिरामी विज्ञापन कंपनियों के अधिकारी शामिल हैं। विज्ञापन देनेवाले वही, बनानेवाले वही, तब उन्हें क्यों अपना ही विज्ञापन अश्लील लगेगा।
देखने वालोँ ने इसे पसन्द नही किया
कैसे नहीं किया? जबकि उत्पाद की बिक्री बढ़ी है.
यह अश्लिल कैसे हुआ, समझमें नहीं आया. तमाम तरह के फूहड़ विज्ञापन यहाँ तक की कण्डोम के विज्ञापन घर परिवार के साथ देखे जा सकते है, यह नहीं!
इस तरह के अश्लील विज्ञापन हमारे समाज को दूषित करने का काम करते हैं खासकर बाल मन पर इनका बहुत अनुचित असर पढ़ता है।
यह समझ नहीं आता कि इन लोगों की दृष्टि में अगर ये सब अश्लील नहीं है तो फिर क्या अश्लील है?
इस तरह के विज्ञापन श्लील एवं अश्लील के बीच पुल का काम करते हैं जिससे कि जो कल अश्लील था उसे आज लोग श्लील कहने लगें. फायदा कंपनी को होता है, नुक्सान भारतीय परिवारों को. इस विषय पर मैं ने कई मुफ्त ईपुस्तिकायें अंग्रेजी मे लिखी हैं. webmaster@sarathi.com पर ईपत्र भेज कर आप उन्हें प्राप्त कर सकते हैं -- शास्त्री जे सी फिलिप
नहीं. मैं नही मानता यह विज्ञापन अश्लील है. इस बारे में मेरे विचार
यहाँ: http://www.tarakash.com/content/view/246/256/
और यहाँ:
http://www.tarakash.com/content/view/259/260/
पढें.
संजय एवं पंकज जी,
मैं मानता हूं कि किसी भी कौमर्शियल विज्ञापन का उद्देश्य उस उत्पाद/ सेवा की बिक्री बढाना ही होता है. यदि बिक्री बढती है तो इसे 'सफल' विज्ञापन माना जा सकता है. कोइ दो राय नहीं.
किंतु 'सफल' विज्ञापन अश्लील नही हो सकता, यह तर्क मानने तो मैं तैयार नही.
हां, अश्लीलता की कोइ सार्वभौमिक /सार्वकालिक परिभाषा भी नही हो सकती . जो एक व्यक्ति/ समाज के लिये अश्लील है, जरूरी नही कि वह हर समाज / व्यक्ति के लिये अश्लील हो. कल जो अश्लीलता की श्रेणी मेँ था, जरूरी नही कि आज् भी वह अश्लील ही कहलाये.
चर्चित विज्ञापन सफल है, मान लिया.
परंतु टीवी घर मेँ अक्सर सभी सदस्य साथ बैथकर भी तो देखते हैँ. यौन सुख/ चरमानन्द/ या ऐसे ही अन्य विषयोँ पर चर्चा हम घर के बालिग/ नाबालिग सदस्योँ के साथ मिलकर तो नही करते ना?
चर्चित विज्ञापन इसी श्रेणी मेँ आता है कि इसे बच्चोँ के साथ बैठ्कर नही समझा सकते.
हम /आप /अन्य व्यक्ति जो बातें आपस मेँ करते है, वही सभी बातें बच्चोँ के सामने तो नही करते.
क़ुछ तो है कि पर्दादारी है. इसी पर्दा दारी के चलते यह विज्ञापन सबके साथ परिवार मेँ बैठकर नही देखा जा सकता.
हां, और भी इससे भी अश्लील /गन्दे विज्ञापन भी है, परंतु इस तर्क से चर्चित विज्ञापन तो 'स्वीकृत 'नही बनाया जा सकता.
मै इसे फ़ुहड कहुंगा.
जो लोग इसे फूहड़ नही मानते ... मैं जानना चाहूंगा कि उनके लिए अखिर फूहड़ या अश्लील अखिर है क्या
अनिल रघुराज की बात सही है।
लगता है तेज़ी से बाज़ार बनती इस दुनिया में अश्लीलता की आंधी को रोकना मुश्किल होता जा रहा है । अगर इसे हरी झंडी मिल गयी है तो इसका मतलब ये है कि आने वाले समय में ये आयडिया और पनपेगा । जल्दी से जल्दी इस पर रोक लगाई जानी चाहिये
मुझे आपके विचारों से इतेफ़ाक है...
रachna singh ji
अनिल रघुराज जी,
श्रीश जी,
शास्त्री फिलिप जी,
रंजन जी,
संजीव सारथी जी,
अनूप शुक्ल जी,
युनुस जी,
मोहिन्देर क़ुमार जी,
टिप्पणी हेतु आप सभी महानुभावों का हार्दिक धन्यवाद.
आप इस पर लिख चुके हैं ये मुझे ज्ञात ना था ..मैने भी इसी विषय पर लिखा था जो यहाँ है .. "
काकेश जी,
कल ही मैने आपका चिट्ठा देखा तो इस विषय पर आपका पोस्ट पढ़ा.
कोई हर्ज़ नही यदि विषय की पुनरावृत्ति हो गयी तो. उद्देश्य है कि चर्चा योग्य विषयों पर चर्चा होनी चाहिये. दोनो एक दूसरे के पूरक ही है.
आपने अच्छी जानकारी दी है,जो मुझसे छूट गयी थी.
अरविन्द चतुर्वेदी
शतप्रतिशत सही लिखा है। काफी भद्दा है विज्ञापन
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