Monday, May 7, 2007

फूलोँ का ज़िक्र सुन न बहारोँ की बात सुन्

बन्धुवर,
इस बार बिना लाग लपेट के सीधे एक गज़ल पेश कर रहा हूँ.
आनन्द लीजिये, सोचिये और विचारिये.

अरविन्द चतुर्वेदी


गज़ल

फूलोँ का ज़िक्र सुन न बहारोँ की बात सुन
कुछ देर तो पतझड़ के शिकारोँ की बात सुन.


इनमै किसी इतिहास का अध्याय छुपा है,
बेबस ,यतीम वक़्त के मारोँ की बात सुन

राजा की पालकी की कराहोँ पे ध्यान दे,
उसको उठाने वाले कहारोँ की बात सुन.


सीने पे चोट खा के चट्खते हैँ बार बार ,
लहरोँ को भूल कर तू किनारोँ की बात सुन.


चन्दा की चान्दनी पे तो लाखोँ फिदा होंगे,
रातोँ को टिमटिमाते सितारोँ की बात सुन.



सरकार की बातोँ के लिये वक़्त बहुत है,
इस वक़्त तो कुचले गये नारोँ की बात सुन.


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8 comments:

ALOK PURANIK said...

अरविंदजी आपकी गजलें मौजूदा हाल पर कमेंट कर रही हैं, ये बहुत अच्छी बात है। गजल इतनी शक्तिशाली विधा है कि उसे सिर्फ महबूब की जुल्फों में व्यर्थ नहीं होना चाहिए। चलिए फिर बात होगी, मुलाकात होगी।
आलोक पुराणिक 09810018799

संजय बेंगाणी said...

बहुत खुब क्या बात है!

गजल का ऐसा विषय भी हो सकता है...बहुत अच्छे.

मैथिली गुप्त said...

पुराणिक जी उवाच "गजल इतनी शक्तिशाली विधा है कि उसे सिर्फ महबूब की जुल्फों में व्यर्थ नहीं होना चाहिए।"
मैं सहमति में हाथ उठाता हूं

Monika (Manya) said...

सीधे-साधे लफ़्ज़ों में कफ़ी सही और अच्छा लिखा है...

Reetesh Gupta said...

राजा की पालकी की कराहोँ पे ध्यान दे,
उसको उठाने वाले कहारोँ की बात सुन.

बहुत खूब ...बधाई

डा.अरविन्द चतुर्वेदी Dr.Arvind Chaturvedi said...

@आलोक जी,
गज़ल की शक्ति के बारे मेँ मैं बिल्कुल सहमत हूँ.
हां, महबूबा की ज़ुल्फें अपनी जगह हैं और अन्य विषय अपनी जगह. प्रश्न प्राथमिकता का है.
आभार

@संजय भाई,
प्रयोग हर बार नया हो तभी प्रयोग का मज़ा है.
आभार

@मैथिली जी,
सहमति हेतु धन्यवाद.
आभार,

@मान्या जी,
गज़ल आपको अच्छी लगी, धन्यवाद
@रीतेश जी,
अब हमेशा हम राजा की पालकी के इंटीरियर की तारीफ तो कर नही ना सकते. और भी गम है ज़माने मेँ.....
आभार
अरविन्द चतुर्वेदी

abhaga said...

बहुत खूब !

Unknown said...

प्रो. साब - पहली बार आपका ब्लॉग देखा - यह ग़ज़ल बहुत अच्छी लगी - जिंदा कौमों की ग़ज़ल - [गर जिंदा कौमें बची हों तो ?] - सादर - मनीष