जब भी प्यार का जिक्र आता है, यह ज़ुमला बार बार दोहराया जाता है कि 'प्यार अंधा होता है' (Love is Blind). साथ ही यह भी कहा जाता है कि प्यार में प्रेमी पागल हो जाते हैं. (Love is always accompanied by madness)
इन परिभाषाओं को सिद्ध करने वाली ,एक नहीं अनेक जीवंत घटनायें हमें आये दिन सुनने को मिल जाती है. किंतु ऐसा क्यों होता है? मैने कभी इस को ढूंढने का प्रयास नहीं किया और न ही यह कहीं पढने में आया कि 'प्यार क्यों अंधा होता है' या प्यार में प्रेमी क्यों पागल हो जाते हैं.मनोविज्ञान के विद्यार्थियों को इसका कारण ज़रूर मालूम होगा. परंतु मैने इस का एक विचित्र वर्णन पढा तो मैने सोचा क्यों न इसे औरों को भी बताया जाये.
मेरे एक मित्र हैं डा. क़रण भाटिया.बिजनौर में एक इंजीनीयरिंग कालेज के निदेशक हैं. आई आई टी बम्बई में होस्टल में हम साथ थे. ( शायद पहले भी किसी पोस्ट में जिक्र आया है)वे अक्सर रोचक सामग्री ई-मेल से भेजते रहते हैं.आज एक मेल में उन्होने 'another beutiful story' शीर्षक से जो सामग्री भेजी,मुझे बहुत भाई और हिन्दी में अनुदित करके मैं यहां प्रस्तुत कर रहा हूं.( मैने इसमें थोडा संशोधन अपनी तरफ से भी कर दिया है)
बात तब की है जब ईश्वर ने मनुष्य की रचना नहीं की थी. हां रचने के लिये सारी सामग्री जुटा ली थी. इस सामग्री में बहुत से मानवीय गुण भी थे, जो मनुष्य के शरीर बनाने के बाद उसमें डाले जाने थे.
इन गुणों में घृणा, सुन्दरता, कोमलता, लचीलापन, प्यार, सच, झूठ, मक्कारी, बे ईमानी ,शर्मो-हया, पागलपन, अकुलाहट, धोखा, आदि आदि सारे गुण शामिल थे,जो ईश्वर को भिन्न भिन्न शरीरों में अलग अनुपात में डालने थे.ईश्वर ने उन सबको एक खुले स्थान पर छोड़ दिया और कहा जाओ कुछ देर खेलो.
सारे गुणों ने मिल्कर छुपन-छुपाई (hide & seek) खेलने का फैसला लिया. सभी गुणों को छुपना था और पागलपन् (madness) को ढूंढने का जिम्मा दिया गया.
सच ने कहा वह पेड के पीछे छिपेगा. झूठ ने कहा कि वह चट्टान के पीछे छिपेगा ,किंतु छिपा जाकर तालाब में .घृणा छिपी जाकर झाडी में. इस तरह सभी गुण जाकर छुप गये तो पागलपन उन्हे ढूंढने निकला.
सबसे पहले ज़ाहिर है सच पकडा गया,क्यों कि वह सबके सामने था. प्यार अकेला ऐसा गुण था जो कहीं छुप ही नही पा रहा था. जब कुछ समझ में नहीं आया तो प्यार गुलाब के फूल में जाकर छुप गया. पागलपन ने बडी जुगत लगायी और धीरे धीरे सबको पकड लिया. प्यार तो फूल में छिपा था अत: पकड में नहीं आया.
फिर 'चुगली' ने जाकर चुपचाप पागलपन को बता दिया कि प्यार तो गुलाब के फूल में छिपा है. बस फिर क्या था. पागलपन ने इधर उधर अभिनय करके गुलाब की क्यारी पर छलांग लगा दी. गुलाब के सारे के सारे कांटे प्यार के बदन मे गढ गये ,यहां तक कि कांटे प्यार की आखों में भी चुभ गये और प्यार अन्धा हो गया.
खूब बावेला मचा. कोहराम सुनकर ईश्वर आया तो देखा कि प्यार तो अन्धा हो गया है और उसे कुछ सूझ नहीं रहा है. जब सारी घटना की जानकारी ईश्वर को हुई तो उसने पागलपन को आदेश दिया कि चूंकि तुम्हारे कारण से प्यार अंधा हुआ है अत: इसकी जिम्मेदारी अब तुम्हारी ही है. अब तुम इसे कभी अकेला नहीं छोडोगे, और हमेशा इसके साथ रहोगे.
तब से प्यार के साथ साथ पागल पन भी रहता है.अन्धा तो प्यार हो ही गया था.
Tuesday, April 15, 2008
Friday, April 11, 2008
तिब्बतियों से एक सवाल
मैं उन सभी तिब्बतियों से एक सवाल पूछना चाहता हूं जो चीन में आयोजित होने वाले ओलम्पिक खेलो का विरोध कर रह्वे है. आखिर उन्हें अपने एक राजनैतिक प्रश्न को लेकर ओलम्पिक खेलों के प्रति विरोध करने का क्या अधिकार है?
तिब्बत में मानवाधिकार का प्रश्न एक अलग प्रश्न है . ओलम्पिक खेलों का आयोजन इससे बिलकुल अलग देखा जाना चाहिये.
ओलम्पिक खेलों का आयोजन का एक पवित्र लक्ष्य है,जिसका राजनीति से कोई सम्बन्ध नही है.यह एक संयोग हो सकता है कि इस वर्ष ओलम्पिक खेलों का आयोजन चीन में हो रहा है . ओलम्पिक खेलों पर किसी एक देश का एकाधिकार नही है. ये खेल समूचे विश्व के खेल हैं. इनका आयोजन एक पवित्र लक्ष्य को लेकर ही होता आया है.
चीन का शासक कौन है ? वहां क्या शासन प्रणाली है?
चीन के शासकों के सम्बन्ध वहां की प्रजा से कैसे हैं और कैसे होने चाहिये. चीन के एक प्रांत तिब्बत में क्या राजनैतिक समस्या है ? उसका क्या हल है? आदि आदि ... अनेकों प्रश्न ऐसे हैं जिन पर अलग अलग लोगों की राय अलग भी हो सकती है?
परंतु इन सभी प्रश्नों को ओलम्पिक के आयोजन से कदापि नही जोडा जाना चाहिये.
ओलम्पिक की मशाल की अपनी एक महत्ता है. राजनैतिक प्रश्नों को बीच में ला कर ओलम्पिक की भावना से खिल्वाड किया जा रहा है, यह गलत है. इसकी निन्दा व भर्त्सना की जानी चाहिये.
मैं सभी तिब्बतियों से अपील करता हूं कि वह ओलम्पिक मशाल के विरुद्ध अपना आन्दोलन वापस ले लें.उनके सभी प्रश्न ज़ायज़ हैं, उन पर पूरे विश्व का ध्यान आकर्षित हो चुका है. उन पर विचार किया जाना चाहिये. चीन सरकार को इसका हल निकालना चाहिये. परंतु ओलम्पिक खेलों में इस प्रश्न को लेकर विघ्न डालना ठीक नहीं .यदि खेलों पर इस विरोध की काली छाया असर डालती है, तो सबसे ज्यादा असर खिलाडियों पर ही पडेगा, जिन्होने पिछले चार वर्ष सिर्फ खेलों की तैयारियों मे ही लगायें हैं.
तिब्बत में मानवाधिकार का प्रश्न एक अलग प्रश्न है . ओलम्पिक खेलों का आयोजन इससे बिलकुल अलग देखा जाना चाहिये.
ओलम्पिक खेलों का आयोजन का एक पवित्र लक्ष्य है,जिसका राजनीति से कोई सम्बन्ध नही है.यह एक संयोग हो सकता है कि इस वर्ष ओलम्पिक खेलों का आयोजन चीन में हो रहा है . ओलम्पिक खेलों पर किसी एक देश का एकाधिकार नही है. ये खेल समूचे विश्व के खेल हैं. इनका आयोजन एक पवित्र लक्ष्य को लेकर ही होता आया है.
चीन का शासक कौन है ? वहां क्या शासन प्रणाली है?
चीन के शासकों के सम्बन्ध वहां की प्रजा से कैसे हैं और कैसे होने चाहिये. चीन के एक प्रांत तिब्बत में क्या राजनैतिक समस्या है ? उसका क्या हल है? आदि आदि ... अनेकों प्रश्न ऐसे हैं जिन पर अलग अलग लोगों की राय अलग भी हो सकती है?
परंतु इन सभी प्रश्नों को ओलम्पिक के आयोजन से कदापि नही जोडा जाना चाहिये.
ओलम्पिक की मशाल की अपनी एक महत्ता है. राजनैतिक प्रश्नों को बीच में ला कर ओलम्पिक की भावना से खिल्वाड किया जा रहा है, यह गलत है. इसकी निन्दा व भर्त्सना की जानी चाहिये.
मैं सभी तिब्बतियों से अपील करता हूं कि वह ओलम्पिक मशाल के विरुद्ध अपना आन्दोलन वापस ले लें.उनके सभी प्रश्न ज़ायज़ हैं, उन पर पूरे विश्व का ध्यान आकर्षित हो चुका है. उन पर विचार किया जाना चाहिये. चीन सरकार को इसका हल निकालना चाहिये. परंतु ओलम्पिक खेलों में इस प्रश्न को लेकर विघ्न डालना ठीक नहीं .यदि खेलों पर इस विरोध की काली छाया असर डालती है, तो सबसे ज्यादा असर खिलाडियों पर ही पडेगा, जिन्होने पिछले चार वर्ष सिर्फ खेलों की तैयारियों मे ही लगायें हैं.
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