Monday, November 26, 2007

तसलीमा के मुद्दे पर बेपर्दा हुए ये लोग


"मीठा मीठा हप्प ,और कडवा क़डवा थू", तमाम राजनैतिक और (तथाकथित)सामाजिक संगठनों ने ओढी हुई है ये नीति. मुद्दा है तसलीमा नसरीन का, जो बंग्लादेश से निर्वासित हैं और भारत मे ( तदर्थ) शरण लिये हुए हैं.

सबसे पहले धुर वामपंथियों की खबर लेते हैं, जिनके लिये दक्षिणपंथियों की हर बात नागवार है. यदि दक्षिणपंथी कहें कि सूर्य पूर्व से निकलता है तो भी इन्हे मंज़ूर नहीं.ये भारत में धर्मनिरपेक्षता के सबसे बडे (तथाकथित)ठेकेदार हैं, हालांकि 'धर्मनिरपेक्षता' शब्द की परिभाषा भी ये समय समय पर बदलते रहते है( जब जैसी इन्हे suit करे).ये मानवाधिकार के भी बहु....त बडे समर्थक है ( नन्दीग्राम को छोडकर).तस्लीमा ने जो नारीवाद के समर्थन में कहा ,वो इन्हे मंज़ूर नही, इन्होने तो मुस्लिम कठ्मुल्लाऑं को खुश करने का लक्ष्य पाला है, क्योंकि इन्हे मुस्लिम वोटों से प्यार है.
अब इसी को लेकर पिल पडे तस्लीमा पर और दे दिया 'देश निकाला' ( इनका देश-यानि कि पश्चिम बंगाल). नीति-धर्म- न्याय- आदि-आदि- की ऐसी तैसी !!!!!.

अब आइये धुर दक्षिणपंथियों पर एक नज़र डालें. धर्मनिरपेक्षता इनके लिये गाली है- ये इसे 'छद्म' मानते हैं.अपनी
धार्मिक भावनाओं पर एक भी छींटा इन्हे बरदाश्त नहीं. पेंटर एम एफ हुसैन को बहिष्कृत इसीलिये होना पडा कि हुसैन की पेंटिंग्स को इन्होने धर्म-विरोधी माना. मुस्लिम कठ्मुल्लापन तो इन्हे सुहाता नही और जो बात मुस्लिम स्वयम्भू नेता कहे ,वह भी इन्हे मंज़ूर नहीं. अब चूंकि मुस्लिम नेता तस्लीमा के पीछे पडॆ है,तो ये तस्लीमा को नागरिकता देने की मांग करने लगे. ज़ाहिर है कि यदि ये मांग मुस्लिम नेता करते ,तो ये तस्लीमा को देश से बाहर खदेडने की बात कह रहे होते.

अब आइये त्रिशंकु कांग्रेस पर. बेपेन्दी के लोटे की तरह इधर उधर जहां चाहो लुढका लो. "जा घर देखी हंडा परात, वा घर नांचें सारी रात" वाली नीति है इनकी. वाम समर्थन पर टिके हैं ये, इसलिये वाम्पंथ की ताल सुना रहेहैं आज. इनका अपना कोई स्टेंड नहीं.

मुस्लिम लीडरान की तो हालत और भी खराब है. कांग्रेस तो यहां वहां से कुछ नीति-दर्शन चुरा भी लाती है, ये क्या करें? इनका दर्शन है "माया" (मायावती नहीं) , अब वह कहां से आती है, क्या फर्क़ पडता है.जितने मुंह, उतने फतवे. इन्हे तो बस अपनी रोटिया सेंकनी है, कही भी सिकें.

और अंत में तस्लीमा. आज़ादी का मतलब सबको गाली देना तो नही होता. कहीं भी जाओ , अरे अपने दो चार दोस्त भी तो बनाओ. ये क्या कि उत्तर गये तो उनको गाली, दक्षिण गये तो उनके गाली. और गाली भी ऐसी कि चुभे. अरे इस तरह की आज़ादी कोई भी मुल्क नहीं दे सकता.ये क्या बात हुई कि आप शरण भी मांगे और शरण लेने के बाद वहां के किसी भी वर्ग के विरुद्ध लिखना भी ना छोडें ?

हां ,इस मुद्द्दे पर सबके सब बेपर्दा हो गये . सबका मुलम्मा उतर गया. कलई खुल गयी.

तसलीमा के मुद्दे पर बेपर्दा हुए

Tuesday, November 20, 2007

लाल झंडे का असली रंग

पूरे विश्व के सम्मुख बेनक़ाब हो गये ये तथाकथित साम्यवादी,. पिछले कुछ हफ्तों में, नन्दीग्राम के निर्दोष नागरिकों ने जो कुछ सहा है, जो भोगा है, जिस दर्द ,पीडा के दौर से वो गुजरे है, शर्मनाक है. पर काश! कम्युनिस्ट पार्टी के नुमाइन्दे ये सब समझ पाते.

कोलकाता में फिल्म समारोह के दौरान शंतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन करने वाले कलाकारों,रंग्कर्मियों के साथ कोलकाता पुलिस ने जो वर्ताव किया, वह उन सभी लोगों के सर शर्म से झुकाने के लिये काफी है, जो कभी वाम पंथियों को एक प्रतिबद्ध समूह मानकर सम्मन देते थे.
राजनैतिक विरोधियॉ पर हिंसा का नंगा नाच , सरकार का बर्बर रवैया -ऐसा यदि देश के किसी अन्य भाग में हुआ होता, तो कम्युनिस्ट दुनिया को सर पए उठा लेते. लोकतंत्र की दुहाई देते. सर्वहारा / निर्धन /विपन्न लोगों के मानवाधिकार का प्रश्न बनाकर , सरकार को बर्खास्त करने की मांग करते.

निहत्थे गरिबों पर गोलीवर्षा क्यों ? सिर्फ इसलिये कि उन्होने तानाशाही रवैये का विरोध किया था ?

और इतने सब के बावज़ूद सीनाजोरी ?

नन्दीग्राम का जिक्र करें तो काटने दौडते हैं वामपंथी .
पश्चिम बंगाल के सभी नागरिकों की आंखे खुल जानी चाहिये. अगर वे आज चुप रहे ,तो कल उनकी बारी निश्चय ही आयेगी.

नपुंसकों की जमात की तरह चुपचाप खडे रहकर तमाशा देख रही है कांग्रेस.

किसी भी द्रृष्टिकोण से देखे, धारा 356 के तहत, सरकार को बर्खास्त करने का ये फिट मामला है.

परंतु कांगरेस को अभी भी दिक्कत है कि वह गठ बन्धन के सहयोगियों का विरोध नही कर सकती. वाह्! रे बिडम्बना .


-------हे प्रभु जी, बचालो !!!!!

Saturday, November 3, 2007

सर्वेक्षण: भूत,प्रेत,जादू,टोना,झाड-फूंक में कितना विश्वास करते हैं आप ? कृपया अपना वोट देना मत भूलें


कुछ दिनों पहले याहू पर एक चौंकाने वाला समाचार दिखा. यह समाचार एक सर्वेक्षण के नतीज़ों पर आधारित था,जिसमें कहा गया था कि 34 प्रतिशत लोग भूत प्रेत आदि में पक्का यकीन रखते हैं तथा 48 प्रतिशत की राय में पराशक्तियों का अपना महत्व है. ( देखें बगल में दिये चित्र के आंकडे)

23 प्रतिशत लोगों ने तो ये भी माना कि उन्होने कभी न कभी भूत प्रेत के दर्शन भी किये हैं.

भारत में भी भूत प्रेत ,झाड-फूंक,जादू टोना अन्धविश्वास पर यकीन करने वाले बहुतायत में ही हैं ,क्योंकि यहां सिनेमा,टीवी, पत्र -पत्रिकायें आदि सब का प्रिय विषय यही सब तो रहा है. दिन पर दिन ऐसे कार्यक्रमों की संख्या भी टीवी चैनलों पर बढ ही रही है.ऐसे मे मैने सोचा कि क्यों ना इसी विषय पर एक सर्वेक्षण (survey) जाये.

एक प्रश्नावली बनायी गयी और आपकी राय जानने के लिये इसे बगल की पट्टी पर क्लिक की सुविधाके साथ उपलब्ध कराया गया है.
कृपया बटन पर क्लिक करें और questionnaire में अपनी राय दर्ज करायें. इसमें कुल दस प्रश्न है ,जो भूत प्रेत् में विश्वास से लेकर ग़ंडा-ताबीज़ तक जैसे विषयों से सम्बन्धित हैं.

तो देर किस बात की ?

दबाइये बटन और हो जाइये शुरू ? आखिर सब जानें तो सही कि पूर्व और पश्चिम में क्या फर्क़ है?

Thursday, November 1, 2007

चले गये “चल गई” वाले शैल जी





मंगलवार को दिन में लगभग बारह बजे पंडित सुरेश नीरव का फोन आया. बातचीत पूरी होते होते उन्होने पूछा कि क्या शैल जी के बारे में कुछ सुना है ? मैने पूछा तो उन्होने बताया कि लखनऊ से फोन पर अपुष्ट सूचना प्राप्त हुई है. किंतु टीवी रेडिओ पर कहीं कुछ नहीं है. शाम होते होते मीडिया में भी खबर फैल गयी. शैल जी चले गये. 1970 के आसपास की बात रही होगी. आगरा शहर अपने चचेरे भाई की बारात में गया था. शैल जी कन्या पक्ष की ओर से समारोह में उपस्थित हुए थे . शैल जी तब तक मशहूर हो चुके थे .लोग नाम से अच्छी तरह वाक़िफ थे. बच्चों ने घेर लिया और शैल जी ने सबको खुश कर दिया. आने वाले वर्षों में शैल जी की लोकप्रियता तेजी से बढी. पहले फिल्म और फिर टीवी पर हास्य कलाकार व चरित्र अभिनेता के रूप मे. कवि सम्मेलनों के प्रमुख कवि ही नही वरन एक स्तम्भ बन चुके थे. 1997 मे मालवीय नगर दिल्ली के एक कवि सम्मेलन में भेंट हुई उसके बाद दर्शन लाभ नही मिल सका.
“चल गई” उनकी एक प्रसिद्ध हास्य कविता है. इस कविता की कवि सम्मेलनों में बहुत फरमाइश होती थी. काका हाथरसी ने उनके बारे में कुछ यूं कहा :

शैल मंच पर चढे तब मच जाता है शोर्
हास्य व्यंग्य के “शैल”यह जमते हैं घनघोर
जमते हैं घनघोर, ठहाके मारें बाबू
मंत्री संत्री लाला लाली हों बेकाबू
काका का आशीष ,विश्व में ख्याति मिलेगी
बिना चरण “चल गयी” हज़ारों वरष चलेगी,


शैल जी ने मस्ती भरा विशुद्ध हास्य भी लिखा. पैना व्यंग्य भी. एक बानगी देखिये:


हमारे देश का प्रजातंत्र
वह तंत्र है
जिसमें हर बीमारी स्वतंत्र है
दवा चलती रहे,बीमार् चलता रहे
यही मूल मंत्र है.


नेता उनका प्रिय विषय था. उन्होने लिखा -

नये नये मंत्री ने
अपने ड्राइवर से कहा
”आज कार हम चलायेंगे”
ड्राइवर बोला
”हम उतर जायेंगे
हुज़ूर!
चलाकर तो देखिये
आपकी आत्मा हिल जायेगी
ये कार है,सरकार नहीं
जो भगवान भरोसे चल जायेगी”



शैल जी के जाने से निश्चय ही हिन्दी हास्य व्यंग्य मे एक रिक्तता आयी है,जिसकी पूर्ति फिल्हाल होती नही दिखती.
मेरी विनम्र श्रद्धांजलि.



( अंतर्जाल पर कल ही एक जानकारी पूर्ण आलेख शैल जी पर मिला, दैनिक भास्कर के बिलास्पुर संस्करण्
मे. पूरा आलेख जस का तस साभार यहां प्रस्तुत् है)



शहर से शुरू हुआ था शैल का सफर

हर्ष पाण्डेय


बिलासपुर. कभी क्लास रूम में अपने चुटकुलों और मिमिक्री से साथियों को हंसी के ठहाके लगवाने वाले ‘कक्काजी’ की बातें पूरे देश में लोगों को गुदगुदाएंगी, यह स्वयं उन्हें भी पता नहीं रही होगी। हंसी के इस वृक्ष ने जीवन भर पूरे देश को हंसाया, उसके बीज बिलासपुर की गलियों में पड़े थे।
टीवी सीरियल ‘कक्काजी कहिन’ और ऐसे ही कई सीरियल व फिल्मों के अलावा मंच पर सीधे संवाद कर दर्शकों को हंसाते-गुदगुदाते रहने वाला यह फनकार लोगों को हमेशा के लिए रुलाकर बिछुड़ गया। हम चर्चा कर रहे हैं शैल चतुर्वेदी की।
शायद कम लोगों को ही पता है कि राष्ट्रीय स्तर के कवि, लेखक और हास्य अभिनेता शैल चतुर्वेदी के जीवन के चुनिंदा दिन शहर की गलियों में गुजरे हैं। शैल चतुर्वेदी का नाम सुनते ही मन में उनकी तस्वीर उभर आती है, ऊंचा डील-डौल, भारी शरीर, चेहरे पर हर वक्त मुस्कुराहट और चुटीले संवाद। अपनी कविताओं के दीवानों से ‘कक्काजी’ आज सदा के लिए बिछुड़ गए और छोड़ गए अपनी यादें।
दयालबंद की गलियों में किशोर ‘शैल’ के कुछ महत्वपूर्ण बरस बीते, जब वे गवर्नमेंट स्कूल के क्लास रूम में बैठकर अपने साथियों को चुटकुले और मिमिक्री सुनाया करते थे। 1950 के दशक में हाईस्कूल में पढ़ाई के दौरान यही वह पड़ाव था, जब उन्होंने चुटकुलों को छंद-कविताओं का रूप दिया और न जाने कब ये कविताएं देशभर में रसिक श्रोताओं के दिलोदिमाग में छा गईं। उस दौरान उनके परिवार के संपर्क में रहे शहर के वरिष्ठ साहित्यकार डा. विनय कुमार पाठक बताते हैं कि शैलजी उनके बड़े भाई डा. विमल पाठक के सीनियर स्टूडेंट थे।
श्री चतुर्वेदी के पिता गवर्नमेंट स्कूल में गणित के टीचर थे और प्रमोशन के बाद प्रिंसिपल बने। डा. पाठक पढ़ाई के सिलसिले में शैल के घर अक्सर आते-जाते थे। बचपन में श्री चतुर्वेदी अपने डील-डौल, हास्य-व्यंग्य प्रदर्शित करते चेहरे और संवादों से सहपाठियों की हंसी का कारण बनते थे। यूं कहें कि उनकी चाहत भी यही थी कि हर इंसान हमेशा हंसता रहे।
उम्र की अंतिम दहलीज तक उनका उद्देश्य दूसरों के चेहरे पर मुस्कुराहट लाना रहा है। हाईस्कूल की पढ़ाई के बाद श्री चतुर्वेदी अपने परिवार के साथ होशंगाबाद चले गए थे। समय बीता, दशकों बाद 1970 में वे बिलासपुर आए तो शहर की गलियों और अपने स्कूल को याद करना न भूले। यहां जाजोदिया भवन में कार्यक्रम के दौरान मंच पर माइक संभालते ही श्री चतुर्वेदी ने शहर में बिताए दिनों को याद करते हुए कहा था कि वे यहां की गली-गली से वाकिफ हैं। इस शहर ने उन्हें जो कुछ दिया है, उसे वे कभी नहीं भूल सकते।
वर्ष 2001 में वे बिलासपुर आए थे, तब शायद किसी को यह अंदेशा नहीं रहा होगा कि ‘कक्काजी’ का यह अंतिम प्रवास है। डा. विनय पाठक कहते हैं कि उन्होंने हास्य-कविताओं के माध्यम से हिंदी को लोकप्रिय बनाने की दिशा में भी काफी काम किए हैं।
शैलजी के परिवार के करीब रहे वरिष्ठ साहित्यकार डा. पालेश्वर शर्मा बताते हैं कि उनके पिता के साथ-साथ उनके ताऊ जगन्नाथ प्रसाद चौबे ‘वनमाली’ ने भी यहां शिक्षा के क्षेत्र में योगदान दिया था। गवर्नमेंट स्कूल में उनके सहपाठी रहे कई लोग अब इस दुनिया में नहीं हैं और जो सहपाठी या परिचित हैं, उन्हें ‘कक्काजी’ के बिछुड़ने का दुख जीवन भर सालता रहेगा।

कविताओं की लाइन लिखते-लिखते न जाने कब श्री चतुर्वेदी राज्य और फिर राष्ट्रीय स्तर के कवि बन गए। उन्होंने न सिर्फ कविताएं लिखीं, बल्कि गोपाल व्यास, काका हाथरसी और हुल्लड़ मुरादाबादी की काव्य परंपरा को विकसित करने में भी योगदान दिया। उनकी कई कृतियां प्रकाशित हुईं, जिनमें से एक ‘चल गई’ पूरी दुनिया में खूब चली। इसके लिए उन्हें ‘काका हाथरसी सम्मान’ और ‘ठिठोली पुरस्कार’ भी मिल चुका है।