Monday, August 27, 2007

आतंकवाद से क्यों मात खा रहे हैं हम ?



बडे फक़्र के साथ आज़ादी की साठवीं वर्षगांठ हम मना रहे हैं. एक उन्नत ,विकसित राष्ट्र के जो सपने आज़ादी के लिये संघर्ष करने वाली हमारी पिछली पीढी ने देखे थे, उनमे से अनेक पूरे हुये हैं और हम पूरे गर्व के साथ इन उपलब्धियों का उल्लेख करते है. अर्थ, विज्ञान ,स्वास्थ्य ,शिक्षा जैसे अनेक क्षेत्रों में महत्वपूर्ण - विश्व स्तर की उपलब्धियों के बावज़ूद हम सुरक्षा के मुद्दे पर इतने कमज़ोर ,शक्तिहीन व प्रभावहीन क्यों हैं?

आज अंग्रेज़ी दैनिक Times of India की lead story पढकर भौंचक रह गया. मात्र पिछले तीन वर्षों मे भारत में आतंकवाद की भेंट चढने वालों मे भारत का विश्व में दूसरा स्थान है. इस अवधि में भारत के 3600 से अधिक लोगों की जानें गयी हैं .( हमसे अधिक जन-हानि उथाने वाले दिशों में सिर्फ ईराक़ हमसे आगे है). यानि प्रतिदिन के औसत पर ह्म लगभग तीन कुर्बानियां देते आ रहे है. यहां तक कि अफगानिस्तान, कोलम्बिया,रूस,सूडान जैसे देश भी हमसे कहीं पीछे हैं.

पिछले लग्भग 25 वर्षों से किसी न किसी रूप में हम आतंकवाद से जूझ रहे हैं . पहले पंजाब जलता रहा जिसे हमारे पडोसी देश की भरपूर शह मिलती रही. देश की जनता ने अत्यंत संयम से काम लिया. जम्मू व काश्मिर में तो आग अभी तक सुलगती आ रही है. शायद ही कोई दिन पूरी तरह शांति से गुजरता हो. उत्तर-पूर्व के अनेक राज्य आतंकवाद से जूझते आ रहे है तथा वहां की शांतिप्रिय जनता अब तो प्राय: इसकी अभ्यस्त सी हो गयी है. इन प्रभावित राज्यों के अतिरिक्त देश के अनेक प्रमुख नगरों की भोली भाली निरीह जनता ,जिसे soft target कहा जाता है ऐसी घटनाओं का दर्द झेलती आ रही है. दिल्ली, बंगलौर, हैदराबाद, मुम्बई आदि नगरों में अनेक मासूम अपनी जान की कुर्बानी दे चुके हैं.

क्या कारण है कि भारत यह सब सहता आ रहा है?
हमारी व्यवस्था इतनी कमज़ोर क्यों है?
हमारा खुफिया तंत्र सालों से सो क्यों रहा है. भारत क्यों नहीं इजराइल जैसे देशों के साथ ऐसे समझौते करके विशेष प्रशिक्षण की व्यवस्था करता ताकि हम आतंकवादियों का खुला मुक़ाबला कर सकें?
सरकारें आती हैं, चली जाती हैं. स्वरक्षा, सुरक्षा पर लगातार बढते बजट के बावजूद भारत का पूरा तंत्र इतना कमज़ोर क्यों है?

आतंक्वादियों के मंसूबे पूरे होते जाते हैं परंतु हमारा तंत्र क्यों सदैव नपुंसक ही बना हुआ है?
कब तक आखिर , आखिर कब तक ?
समय आ गया है कि हम जागें और् उठ खडे हों इस दानव के खिलाफ.कोई भी कुर्बानी छोटी है हमारी सुरक्ष के सामने.

भाई संजय बेंगाणी की टिप्पणी बडी माक़ूल है, उसका वहा तो जवाब तो मैने लिख दिया, परंतु सोचा कि पूरे लेख का लब्बो-लुबाब तो यही होना चाहिये था. वह यों है:




रास्ता कठिन या दुष्कर नहीं होता, विशेष कर तब जब हम अपने अस्तित्व के लिये लड रहे हों .

हमारे अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध किस काम के यदि हम अपने लिये सुरक्षा के लिये आवश्यक technology जुटा ना सकें.
तय करना होगा कि भारत ऐसे समझोते करे जहां हमारी अपनी सुरक्षा खतरे में पडे तो दस बीस देश हमारे साथ खडे हों.

.....और सौ की सीधी एक बात . खत्म कर दो ना नासूर को जो हमारे देश पर पडोस से नज़रें गडाये खडा है. ..और अपनी ताक़त के दम पर , झुकाओ ना उन दूसरी ताक़तों को जिनका डर है हमॆं.

...दुनिया झुकती है. झुकाने वाला चाहिये ...

चक दे इंडिया !!!!!!!!





कल ही शाहरुख खान की 'चक दे इंडिया' देखी.फिल्म के बारे में पहले पढ रखा था. लगता था कि चलो और कुछ नहीं तो टाइम पास ही सही. किंतु जैसे जैसे फिल्म आगे बढती गयी, involvement भी बढता गया.
जब फिल्म में इंडिया की टीम womens hockey का world-cup खेल रही थी तो इतना अधिक interest आने लगा जैसे कि कोइ लाइव match चल रहा हो.
आज इस फिल्म पर ndtv द्वारा किया गया feature देखा , जिसमें anchoring एक ब्लौगर साथी रवीश कुमार कर रहे थे. पूर्व हौकी खिलाडी ज़फर इक़बाल ने कहा कि फिल्म देखते देखते कई बार वो कुछ इमोश्नल हो गये और उनके आंसू निकल पडे, तो लगा कि मैं अकेला नहीं हूं जो इस फिल्म को देख्कर भावनाओं में बहने लगा था.

फिल्म में भारतीय टीम की जो महिला खिलाडी हैं,उनका चयन, चरित्र चित्रण तो कबिले तारीफ है ही, एक एक छोटी सी घटना भी कुछ न कुछ सन्देश दे कर जाती है
कुल मिलाकर यह फिल्म न केवल खेल के प्रति उत्साह जगाती है , बल्कि इसका मुख्य प्रभाव है देश के प्रति चेतना, टीम भावना का महत्व व संघर्ष की प्रेरणा.

खुद भी देखें और सबको दिखायें.

Wednesday, August 15, 2007

तुम हो पहरेदार चमन के




राजनीति और साहित्य दो अलग अलग धारायें है. बहुत कम लोग ही मुझे मिले हैं जिनका दोनों से ही सम्बन्ध है. प्रो. उदय प्रताप सिंह एक ऐसी ही शख्सियत हैं समाज्वादी पार्टी के सांसद है. लोकसभा व राज्यसभा दोनो में रहे हैं. पिछले 18-19 वर्षों से सक्रिय राजनीति में हैं.
प्रो. उदय प्रताप सिंह का कविता से पुराना सम्बन्ध है. अध्यापक रहे हैं.पिछले 40-50 वर्षों से लगातार लिखते आ रहे हैं.मेरी प्रोफेसर उदय प्रताप जी से जान-पहचान लग्भग 17 वर्षों से है. फिलहाल मैं राजनीति में सक्रिय नहीं हूं फिर भी साहित्यिक,सांसकृतिक कार्यक्रमों में मुलाक़ात हो ही जाती है.
पिछले 11 अगस्त को मेरी संस्था " अक्ष" की ओर से एक साहित्यिक आयोजन था,जिसमें पुस्तक के लोकार्पण के अतिरिक्त लघु कवि सम्मेलन भी था. उदय प्रताप् जी आमंत्रित थे.उन्होने देशभक्ति से ओत-प्रोत एक रचना पढी जिसमे उन्होने चन्द्र शेखर आज़ाद की जनम्स्थली बदरका को प्रणाम कहा.मेरे विशेष अनुरोध पर उन्होने एक रचना पढी, जिसका सम्बन्ध लोकतंत्र की पहरेदारी से है. लोकतंत्र में जनता का एक सजग् प्रहरी के रूप में जो दायित्व है,उसी को रेखांकित करती है ये कविता.
उदय प्रताप सिंह जी की अनुमति लेकर यहां यह कविता संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत है:


ऐसे नहीं जागकर बैठो तुम हो पहरेदार चमन के ,
चिंता क्या है सोने दो यदि सोते हैं सरदार चमन के.
वैसे भी ये बड़े लोग हैं, अक्सर धूप चढ़े जगते हैं
व्यवहारों से कहीं अधिक तस्वीरों में अच्छे लगते हैं
इनका है इतिहास गवाही जैसे सोये वैसे जागे
इनके स्वार्थ सचिव चलते हैं नई सुबह के रथ के आगे
माना कल तक तुम सोये थे लेकिन ये तो जाग रहे थे
फिर भी कहां चले जाते थे ,जाने सब उपहार चमन के
ऐसे नहीं जागकर बैठो.......


जिनको आदत है सोने की उपवन की अनुकूल हवा में
उनका अस्थिशेष भी उड जाता है बनकर धूल हवा में
लेकिन जो संघर्षों का सुख सिरहाने रखकर सोते हैं
युग के अंगडाई लेने पर वे ही पैगम्बर होते हैं
जो अपने को बीज बनाकर मिट्टी में मिलना सीखे हैं
सदियों तक उनके सांचे में धलते हैं व्यवहार चमन के
ऐसे नहीं जागकर बैठो......


यह आवश्यक नहीं कि कल भी होगी ऐसी बात चमन में
ऐन बहारों में ठहरी है कांटों की बारात चमन में
कल की आने वाली कलियां पिछले खाते जमा करेंगी
तब इन कागज़ के फूलों की गलती कैसे क्षमा करेंगी
उस पर मेरी क़लम गवाही बिना सत्य के कुछ ना कहेगी
केवल बातों के सिक्के से चलते थे व्यापार चमन के
ऐसे नहीं जागकर बैठो...

( समारोह की पूरी रपट लग से एक पोस्ट में दी जायेगी)

चित्र 1 :मंच पर श्री उदय प्रताप सिंह कवि अरविन्द पथिक को प्रशस्ति पत्र भेंट करते हुए
चित्र 2:अरविन्द चतुर्वेदी का कविता पाठ्
चित्र 3 : मंच पर श्री उदय प्रताप सिंह,प.सुरेश नीरव,उ.प्र.सरकार के मंत्री यश्वंत सिंह,दिल्ली सरकार के मंत्री डा. ए.के.वालिया

Monday, August 6, 2007

अपने हाथों का खिलौना न बनाना मुझको

अपने हाथों का खिलौना न बनाना मुझको ,
हो सके तो किसी मूरत सा सजाना मुझको.


मैं जो मिट्टी हूं तो एक बीज़ मिला दे मुझमें,
में हूं पत्थर तो अहिल्या सा बनाना मुझको.


बून्द हूं तो किसी दरिया में समा जाने दो ,
मैं जो दरिया हूं तो सागर में मिलाना मुझको.


हूं जो नफरत तो मुझे ,क़त्ल करके दफनाना,
मैं मोहब्बत हूं तो सीने से लगाना मुझको.


मैं जो आकाश दिखूं,ओढना चादर की तरह ,
दिखूं धरती तो, बिछौने सा बिछाना मुझको.


जो हूं कांटा तो मुझे दिल में छुपा कर रखना,
फूल हूं तो किसी मन्दिर में चढाना मुझको.



मैं हूं दोहा, तो किसी पाठ् सा पढ जाना मुझे,
मैं गज़ल हूं तो ज़रा झूम के गाना मुझको.